।। मानसरोवर में ।।
अपने ओठों से उँगलियों से खिलाते हो पाँखुरी-दर-पाँखुरी सृष्टि पराग की तलाश में जहाँ रच सको अपने प्यार का पहला कुसुम मेरी देह के मानसरोवर में देह की परतों के भीतर स्पर्श रचता है प्यार का भीगा-भीना विलक्षण अनुभूति इतिहास अनकहा प्रेम सुख देह प्रणय का ब्रह्मांड है साँसों की आँखों से छूते हैं स्नेह का अंतरंग कोना तक जहाँ साँस लेता है ब्रह्मानंद-नद तुम्हारे भीतर एक नदी के रिसाव के लिए जिसमें प्रणय की पुनर्सृष्टि की शक्ति है अदृश्य लेकिन स्पर्श के भीतर दृश्य मैं विश्वास करती हूँ तुम्हारे प्रेम पर क्योंकि तुम अपने को खोकर प्रेम को पाते हो यही प्रेम का विश्वास है इसी विश्वास में प्रेम धड़कता रहता है भजन बन कर । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)