।। गदराई हुई नदी ।।

तुम्हें अवतरित करती हूँ स्मृतियों की देह में जहाँ से प्रवेश करते हो तुम सर्वाङ्ग में सूर्य रश्मियाँ चिड़ियों की तरह गुनगुनाने लगती हैं अनोखे शब्द कहीं भीतर से भीतर तक अनुभूति में उतरने लगती है उष्म तासीर पूरी संजीदगी के साथ भोर होने से पहले ही महसूस होते हैं अजोरे के 'वे' कुछ शब्द तुम्हारी हथेली सरीखे अपने कंधे पर जो अपने स्पर्श में रचते हैं विश्वास की भाषा पीठ पर नई इबारत निर्मल ...