।। प्राणाग्नि ।।

अशोक वृक्ष की तरह
आवक्ष लिया है     तुमने
साँसों ने लिखी है
अछोर प्रणय की गुप्त-लिपि
जो तुम्हारे मन की जड़ों तक
पहुँचती है
तितिक्षा से मिलने के लिए

मेरे-तुम्हारे
प्रणय की साक्षी है    प्राणाग्नि
अधरों ने पलाश-पुष्प बन
तिलक किया है    प्रणय भाल पर
मन-मृग की कस्तूरी जहाँ सुगंधित है
साँसों ने पढ़े हैं     अभिमंत्रित
सिद्ध आदिमंत्र

एक-दूसरे के देह कलश के
अमृत जल ने
पवित्र की है देह
जो प्राणवंत हुई है
भीग-भीग कर

सृष्टि की सुकोमल आर्द्र
पुष्प पाँखुरी अधर ने
अपने मौन स्पर्श से
लिखे हैं
अधरों पर
प्रणय के अघोषित शब्द
जिसे स्पर्श की आँखें
जानती हैं     पढ़ना

देह के हवन-कुंड में
पवित्र संकल्प के साथ दी है
अपने अपने प्राणों की चिरायु-शक्ति
प्रणय-शिशु के
चिरंजीवी होने के लिए
प्राण-प्रतिष्ठा की है साँसों की
देह-माटी में
तुमने रोया है
अपने प्रणय का प्रथम बीज

तुम्हारे अधरों ने लिखा है
मेरे अधरों पर
प्रथम प्रणय का संविधान
प्रेम का नया संयुक्तानुशासन
एकत्व और एकात्मकता के लिए

प्रेम का सिंदूरी-पक्षी
फूल-सा कोमल और मुलायम
सेमल-सा रेशमी
चित्त का चितेरा
प्रिय का हृदय-नीड़
उसे बचाओ
बुरे समय से
शब्दों के द्वारा

तुम्हारे शब्द
मन की स्वर्णिम गिन्नी है
हृदय के टकसाल में बनी
जिसमें एक ओर मेरी
और दूसरी ओर
तुम्हारी छवि है
प्रेम के
एक ही सिक्के हैं    हम दोनों
जिसकी
पहचान और धातु एक है ।

('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

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