।। हृदयलिपि ।।

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
प्यार 
हस्तलिपि सरीखा है अनोखा 
प्रिय ही पढ़ पाता है जिसे 

भीगती है वह 
अपनी ही बरसात में 
तपती है वह 
अपने ही ताप में 

प्रणय के स्वर्ण-भस्म में 
तब्दील हो जाने के लिए 

अपने प्रेम में 
रहती है वह 
उसका प्रेम ही 
उसकी अपनी 
देह है  जिसमें जीती है वह 

अस्तित्व में 
अस्मिता की तरह 

साँसें जीती हैं   देह 
देह में जीती हैं   धड़कनें 
धड़कनों की ध्वनि से 
रचाती है शब्द 
हस्तलिपि में बदलने के लिए 
और उकेरती है  हृदयलिपि ।  

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