।। प्रेम गढ़ता है ।।
नेह-स्नेह बन
उजाले की तरह 
भरता है मन गहवर 
धड़कनें बन जाती हैं राग-धुन
छोड़ती हैं पद-चिन्ह 
स्मृति पृष्ठों पर 
चित्त का आर्द्र भाव
उतरता है 
चाँद की तरह 
अंतस के सर्वांग को 
चाँदनी में बदलते हुए 
उमंगें
उठती हैं पैंगे बढ़ाकर 
बदल जाते हैं शब्द 
संवेदनाओं में ....
शब्द
      अनजाने ही 
      पिघलते हैं 
      ढलते हैं 
लेते हैं आकार 
      सौंदर्य में 
      स्पंदन में 
कि शब्दों की देह में 
धड़कने लगते हैं  अर्थ 
      प्राण सरीखे 
      ऐसे में 
      प्रेम गढ़ता है 
      अपने ही भीतर 
      स्वर्ण तप्त  अनुभूति कुंड । 
(हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

 
 
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें