।। प्रणय-मणि ।।


















वह आती है 
हवाओं की तरह 
और साँसों में होकर 
अपनी विदेह देह को 
सिद्ध करती है 

प्रेम में 
स्वयं सिद्धा है वह 
पर, सहज ही दिखती नहीं है 
प्रेम की तरह 

लेकिन 
अपनी अनुपस्थिति में भी 
लिखती है अपने होने के कोरे शब्द 

पाक-पृष्ठ की तरह 
धवलता में 
फड़फड़ाती है वह    हथेली के नीचे 
और आँखों के बीच 

वह लिखती है 
सिर्फ़ लिखती है 
देह कोश में शब्द कोश 
        अर्थ कोश 
        प्रणय कोश 

उसके शब्दों की परछाईं में 
प्रेम एक अस्तित्व बनकर आता है 
वह बनती और बनाती है 
प्रणय अस्मिता 
जिसको हासिल करने में 
अहम् की सारी परतें मिट जाती हैं 

रह जाती हैं सिर्फ 
चाँदनी रात में लिपटी हुई 
मौन झीलें 
बर्फ़ ढके शहर 

कुछ ढहे हुए 
स्वर्ण के पिघले हुए पहाड़ 
तूफान से पस्त हुआ समुद्र 
और 
मन-मंथन से 
बाहर आई हुई 
प्रणय मणि 
पारस मणि से भी अधिक 
        प्रभावशाली ।

 (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

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