।। कौंध-गूँज ।।
अंतस में
चट्टान हो चुकी
समय की पर्तें
चटकती रहती हैं जब-तब
वजूद के कुछ शब्द
अधरों पर लेते हैं अपना आकार
वर्षों बाद
देह ने
ध्वनित होते सुना स्वयं को स्वयं में
आँखें पहचान सकीं
अपने आँसुओं का नमक और पानी
अधरों में हुई बाँसुरी-सी सुगंधित सिहरन
और पकी फसल की तरह
हम दोनों ने लिया एक-दूसरे का नाम
तैयार की निज की हथेलियाँ
हथेलियों को भरने के लिए
चित्त की गंध
उतरने लगी थी चेतना में
मन के बीजण
लौट आए फिर से
भीतर से बाहर तक
तुम्हारी आकांक्षाओं की
अनथकी आहटें
तुम्हारे धैर्य के कुछ अनिवार्य शब्द
प्रार्थना से संयुक्त हो गूँजते हैं आत्मा में
हृदय की मंजुषा में सुरक्षित
स्पर्श की हथेलियों का स्पंदन
अनुभूतियों के नए रेखा-चित्र
आकुल धड़कनों की धुन में
गाते हैं नई लय
जो बजते ही रहते हैं निरंतर
('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)
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