।। ध्वनि-गुंजन ।।























अनन्य अनुराग में उन्मत्त
अविचल थिरकती
उपासना के कानन में
करती है     उपवास

साँसों से जपते हुए
आँसुओं का चढ़ाती है     अर्ध्य
ताप में तपकर
होती है सजल     उजल

ऐसे में
निर्मल शब्द
देह में पहुँच कर
घुल जाते हैं      रक्त में
बन जाते हैं      देह की नेह पहचान

विदेह हुई देह में
होती है     मात्र प्रणय देह

बहुत चुपचाप
व्याकुल चित्त में
गूँथती है    शब्दों की परछाईं
साँसों में सिहरन
धड़कनों में ध्वनि-स्पंदन
सब पर्याय हैं     प्रेम में
                      सिद्ध साधना के
                      मूल मंत्र

('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

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