।। अग्निगर्भी शक्ति ।।
















धूप में
बढ़ाती हूँ अपनी
आत्मा की अग्निगर्भी दीप्ति

तुम तक पहुँचती हूँ तुम्हारे लिए
अक्षय प्रणय-प्रकाश
तुम्हारे मन की खिड़की से
पहुँचता होगा निकट से निकटतर
कि नैकट्य की
नूतन परिभाषाएँ रचती होगी
तुम्हारी अतृप्त आत्मा

वृक्ष को सौंपती हूँ
वक्ष की अंतस की परछाईं
अपनी धड़कती आकांक्षाएँ
मूँदे हुए स्वप्न
झुलसी हुई मन-देह

वृक्ष जिसे चुपचाप कहता है
अपने झूम-घोल से
जो तुम तक
मेघ-दूत बन
पहुँचता है
गहरी आधी रात गए ।

('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

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