।। प्रकृति में तुम ।।


















सूर्य की चमक में
तुम्हारा ताप है
हवाओं में
तुम्हारी साँस
पाँखुरी में
तुम्हारा स्पर्श
सुगंध में
तुम्हारी पहचान

जब जीना होता है तुम्हें
प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ
और आँखें
महसूस करती हैं
मेरे भीतर तुम्हें

मैं अपनी परछाईं में
तुम्हें ही देखती हूँ
क्योंकि
मेरी देह तो
'तुम' बन चुकी है

मैं तो
तुम्हारे प्यार की
परछाईं बन कर
धरती पर
बिछी हुई हूँ
जिसे तुम्हारी देह
छाया बनकर छूती है
कि धरती तक
खिल पड़ती है

मेरी परछाईं में
तुम्हारी खिली मुस्कुराहट
'शब्द' की तरह
मैं अपनी
परछाईं के कागज में
तुम्हारे ओठों के रंग से
लिखा हुआ देखती हूँ कि जिसे
मेरे ओंठ चूम लेते हैं
और आँखों के भीतर
एक वसंत खिल पड़ता है

तुम, इस तरह
मेरी आँखों के भीतर
प्यार की पृथ्वी रचते हो
जिसे मैं शब्द की प्रकृति में
प्रकृति से घटित करती हूँ ।

('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

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