चार छोटी कविताएँ
।। सर्वांग ।।
मैं
तुम्हारी आत्मा का वाक्य हूँ
अंतःकरण की भाषा का सर्वांग
तुम्हारे शब्दों ने
रची है प्यार की देह
मेरे भीतर
जो बोलती है
तुम्हारी ही तरह
मुझे एकांत में करके
।। झुककर ।।
नदी में
अपनी छवि देखी
आवाज से तुम्हारी धड़कनों में
उतरकर
जैसे छवि देखती हूँ अपनी
अक्सर
वृक्ष याकि वक्ष के कोटर में
कुछ अंकुरित शब्द रखे
वे चहकने लगे नवजात पाखी की तरह
नवोदित द्धीप पर
कुछ शब्द फैलाती हूँ
और कभी बटोर लेती हूँ
प्रतीक्षा में तुम्हारी
।। सुंदरतम रहस्य ।।
खुद को
छोड़ दिया है मुझमें
जैसे शब्दों में
छूट जाता है इतिहास
सपनों की कोमलता
आकार लेने लगी है सच्चाई में
अनुराग का रंग
उतरने लगता है देह में
उतरने लगता है देह में
पलकों में लरजने लगते हैं
ऋतुओं के सुंदरतम रहस्य
आँखें ओंठों की तरह
मुस्कुराने लगती हैं
सिर्फ तुम्हें सोचने भर से
।। अंतस में ।।
सूर्य से
सोख लिए हैं रोशनी के रजकण
अधूरे चाँद के निकट
रख दी हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
स्वाती बूँद से
पी है तुम्हारी निर्मल नमी
बसंत बीज को
उगाया है अंतस में
कहीं से
मन झरोखे को थामे हुए तुम
रहते हो मेरी अन्तर्पर्तों में
स्वप्न-पुरुष होकर
मेरी अंतरंग यात्राओं के
आत्मीय सहचर
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें