।। निर्गुणिया सुख ।।
घर की
किसी अलमारी में
रखते हैं जैसे
ईश्वर का कोई रूप
मूर्ति या तस्वीर के बहाने
कुछ धर्मग्रंथों के साथ
बिल्कुल वैसे ही
कहीं बहुत भीतर रखती हूँ
अपना सजल प्रेम
कि पवित्र हो जाती है सम्पूर्ण देह
ईश्वरीय मूर्ति की तरह
अलौकिक शक्ति से सम्पूर्ण
कि सुनाई देने लगती है
सभी धर्मों की गूँज
कि देखते देखते
देह बदल जाती है -
कभी मीरा के वाद्य यंत्र में
तो कभी कबीर के निर्गुण में
जिसमें ख़ुद को सुनते हुए
मैं
ख़ुद में बजने लगती हूँ
और गुनने लगती हूँ
प्रिय के संवाद
मन-ही-मन में ।
(हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)
(हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)
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