।। रक्त-बूँद ।।
हर पल के पार
जाने के लिए
खून का बूँद-बूँद
देती हूँ
और परे होती हूँ समय के
तुम्हारे पास पहुँचने के लिए
तुम्हारी हथेलियों में है
मेरी जिंदगी
जिसे ओठों से पीकर
ही जी पाती हूँ
तुम्हारी हथेली
एक वृक्ष की तरह
मेरी हथेली में खिल रही है
तुम्हारी मुस्कुराहट की तरह
जिसे देखने के लिए ही
ऑंखें खुलती हैं
वरना
आँखों के घर में
मैं तुम्हारे साथ हूँ
तुमसे दूर हो कर भी
बूँद-बूँद
खून देकर
जी पाती हूँ
अपनी अस्मिता की
जिद की लड़ाई
नवरात्र की साधना में
तुम हो मेरी सिद्धि
मेरे सारे सपने
तुम्हारी आँखों में
पलते हैं
जिसकी उजली कोमलता
मैं
चूम कर महसूस करती हूँ
तुम्हारी जिंदगी की तारीखें
मेरी जिंदगी की डायरी के
पन्ने हैं
जिनमें मैं तुम्हारा नाम लिखकर
तुममें तुम्हारे सपने भरती हूँ ।
('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें