।। देह की चाक से ।।
सब कुछ
साँस ले रहा है
मेरी देह में
संपूर्ण सृष्टि
तुम्हारी प्रकृति बनकर
एक अंश में
धड़क रही है
मेरे भीतर
अधरों में अधर
आँखों में आँखें
साँसों में साँसें
हथेली में स्पर्श
हृदय में साँस
ले रही है तुम्हारी ध्वनि
अनहद नाद की तरह
अपने सर्वांग में
मैं जीती हूँ तुम्हारा सर्वस्व
तुम्हारे शिवत्व को
साध रही हूँ अपनी शक्ति में
तुम्हारा अंतस और बाह्य
गढ़ रही हूँ
अपनी देह की चाक में
कुम्हारिन की तरह
तुममें
खुद को खोकर ही जाना है
प्रेम में जीना
और अर्धनारीश्वर
हो जाना
लेकिन
सर्वस्व विसर्जन की
समर्पिणी साधना के बाद
देह के ब्रह्मांड में
नव नक्षत्र की तरह
अपनी धड़कनों में
चमक रहा है
तुम्हारा प्रणय
देह की कांति बनकर
स्फूर्ति रच रही है
मेरे ही भीतर प्रेम
प्रेम का स्थायी सुखोत्सव
गर्भ की आँख में
लगाया था तुमने काजल
लाल आँसू बन कर
रिस गया वह
गहराई से जिए गए
सघन संबंधों को
भरा था गहरे अर्थ से
कि इससे पहले
जैसे यह शब्द
अर्थ के बिना था
अनुभूति की
दुग्ध नलिकाओं से
उतरने लगा था दूध
गर्भस्थ शिशु के लिए
हृदय की कोख में
धड़कने लगा था
'माँ' शब्द
अपनी ही साँसों में
महसूस होने लगी थी
अपने बच्चे की दुधीली साँस
और ममता की सुगंध
हथेलियाँ
वात्सल्य से
मुलायम और गदीली होने लगी थीं
अपनी पुलक में
महसूस करने लगी थी
तुम्हारे शिशु की किलक
मेरे सपनों में
शामिल होने लगा था
उसका भविष्य
धीरे-धीरे देह टोहने लगी थी
तुम्हारे प्यार का जादु
जैसे मैंने जिया है
तुम्हारा जादुई प्रेम
अपने हिमालय से
गुप्त गोदावरी तक
अपने केशों में
महसूस होने लगी थी
उसकी भिंची मुट्ठियाँ
और उनका खिंचाव
अपने कंधों पर
शैशव का सोंधापन
अपने स्तनों में
उसकी भूख का भारीपन
और छाती में
दुधारू गायों का-सा भार
उसकी काल्पनिक स्मृतियों की लार से
भीजने लगी थी देह
नानी की लोरी
तरंग बन जाग उठी थी
भूले हुए कंठ में
हथेलियाँ, सीखने लगी थीं
थपकियों का कत्थक
शिशु को
अपने सपनों की छाती से
लगाकर सुलाने के लिए
जैसे तुम्हारे वक्ष से लगकर
हृदय ने सीखा है
तुममें समाकर जीना
तुम्हारे शिशु में
मैं देखने लगी थी अपना सूर्योदय
दैवी शक्ति का आविर्भाव
मेरे भीतर
झरने लगी थी
पराग की माटी
जिससे लीपने लगी थी
अपने मन की देहरी
कि अचानक
अपने ही भीतर
झर गया
हमारी देह का केशर
सपने की आँख
खुलने से पहले ही
खून से लाल हो गई
नव जीवन की मृत्यु का दुःख
मौत से बड़ा दुःख है
अपनी मौत से
अधिक भयानक है
अपने ही देह-घर में
गर्भस्थ शिशु की मौत
'माँ' ही जान पाती है
देह का वसंत ऋतु में
बदल जाना
और पतझर का पर्याय
बन फड़फड़ाना
देह का
बसंत घर से मौत घर में
बदल जाने का दुःख
गौतम बुद्ध के दुःख दर्शन से परे है
जब औरत जीती है
अपनी ही देह में
नव अंकुरित देह के झर जाने का त्रास
कि जैसे कोट का बटन
लगाने से पहले
छूट गया हो हाथ से
जैसे गम में लिखे
नई इबारत कि
इससे पहले
चू पड़े स्याही
देह से बाहर
जैसे देह ब्रह्मांड से
एक नक्षत्र
टूटकर
गिर गया हो
ब्रह्मांड से बाहर
जैसे कलाई से
धड़कती घड़ी
उतार ली हो समय ने
जबकि हर पल
डरती रहती थी
गर्भपात से पहले
कोमल और मुलायम
ईश्वर घर की तरह पवित्र
स्वर्ग से सुंदर
पाँखुरी से मुलायम
पराग से सुगंधित
देह-गर्भ-गृह से बाहर आने पर
वैसी ही भीषण दुनिया में रहेगी
उसकी बेटी
जैसी दुनिया में
सूरज के होने पर भी
काँपकर रखती है अपने पाँव
हर दिन
घर से बाहर
और ठीक से चलती है साँस
घर पहुँचने पर ही
जबकि रात में
दिन की हदस से
कई बार
भर आती थीं आँखें
रात के काले अँधेरे में भी
कि दिवस की दुर्घटनाओं की
याद से भरकर
कि सूर्य के
सिर पर
होने पर भी
दिमाग का अँधेरा
जल्लाद बनने से
नहीं बच पाता है
सपनों के पाँव के मौजे का
पहला फंदा डालते ही
देह की सलाई से
ढुलक गया
नव-देह का
सुकोमल
प्यार का फंदा ।
('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)
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