।। धर्म से बाहर ।।


















प्रेम को
पृथ्वी की प्रथम और अंतिम चाहत की तरह
चाहा है ।

स्वार्थ के समय ने
प्यार को बहुत मैला कर दिया है ।
अविश्वास ने तोड़ दिया है
प्यार का साँचा
जैसे - ईश्वर से बने धर्म से
ईश्वर बाहर हो गया है
जैसे - धर्म के भीतर से
लोगों ने ईश्वर को उठा दिया है ।

अपने
मानस के धर्म में
मैं फिर से
रच रही हूँ 'ईश्वर'
अपनी आस्था की ताकत से
वैसे ही
अपने मन के धर्म से
तुम्हारे ह्रदय में
रच रही हूँ प्यार ।

शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे
तुम मेरे
मन और अस्तित्व की
पहली और अंतिम चाहत हो ...। 

(नीदरलैंड में प्रत्येक वर्ष फूलों के उत्सव का आयोजन होता है । पुष्पिता अवस्थी नियमित रूप से 
उस आयोजन में शामिल होती हैं । ऊपर की तस्वीर ऐसे ही एक मौके की है ।)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

।। सुख का वर्क ।।

सूरीनाम में रहने वाले प्रवासियों की संघर्ष की गाथा है 'छिन्नमूल'

।। अनुभूति रहस्य ।।