मन मछली को   देह नदी से निकालकर   डुबा देना चाहती है वह   आत्मा के समुद्र में   क्योंकि   रेत नदी है   देह   सूखी और प्यासी    मन के उजाले को   देह के अन्ध-अँधेरे कोटर से निकाल   सूर्य-रश्मि बन   लौट जाना चाहती है वह   सूर्य-उर में   अंतहीन अँधेरी सुरंग है देह   पथहीन    मन की धड़कनों की   ध्वनियों में   रचना चाहती है   तुम्हारे नाम के पर्यायवाची शब्द   उन शब्दों में रमाकर   अपनी धड़कनों को   भूल जाना चाहती है 'स्व' को   और महसूस करना चाहती है   ऋचा की पवित्र अनुगूँज की तरह तुम्हें   मिथ्या-शब्दों के छल से दग्ध आत्मा को   निकाल लेना चाहती है   तुम्हारे नाम से   तुम्हारी साँसों से   अपनी संतप्त धड़कनों के बाहर    मन की साँसों से   ऋतुओं के प्राण को   खिला देना चाहती है   देह-पृथ्वी के अनन्य कोनों में   तुम्हारी कोमलता की हथेली में   लिख देना चाहती है वह   अपने अधरों से   कुछ प्रणय-सूक्त    तुम्हारे नाम की   पवन-धारा में   नहा आई साँसों को   लगा देना चाहती है   प्रणय-देह-शंख में   जीवन-जय-घोष के लिए   मन-देह को   प्रणय-शब्द-देह म...