।। मन के अन्तःपुर का पाहुन है प्रेम ।।



















प्रेम
मात्र शब्द है जिनके लिए
वे कथा की तरह पढ़ते हैं
देखते और जीते हैं
नाट्य-नौटंकी की तरह
और खाली समय में खेलते हैं
बचपन के सारे खेल छूटने के बाद ।

प्रेम जिनके लिए स्पर्श है
वे छूते हैं आँखों से
प्रणय का तन और मन
वे सुनते हैं कानों से
प्रणय की झंकृति
वे सूँघते हैं साँसों से
प्रणय की साँस और जान
वे स्पर्श करते हैं प्रणय-गात
जैसे अभिषेक के लिए ललाट
आशीषाकांक्षा से चरण
और पाते हैं प्रणय की चरितार्थता ।

प्रेम शब्दों से परे है
शब्दकोशों से बहिष्कृत
मन के अन्तःपुर का पाहुन है वह
केवल ह्रदय से
हार्दिकता से काम्य ।

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