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सूरीनाम में रहने वाले प्रवासियों की संघर्ष की गाथा है 'छिन्नमूल'

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हिंदी पत्रिका आउटलुक में पुष्पिता अवस्थी के उपन्यास 'छिन्नमूल' की समीक्षा 'प्रवासी जन-जीवन की गाथा' शीर्षक कॉलम के तहत प्रकाशित हुई है, जिसे प्रख्यात समीक्षक ओम निश्चल ने लिखा है । उसे हम यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहे हैं । उक्त समीक्षा को यहाँ हू-ब-हू पढ़ा जा सकता है । प्रवासी भारतीय लेखकों में पुष्पिता अवस्थी का नाम प्रतिष्‍ठा से लिया जाता है। पहली बार किसी प्रवासी भारतीय लेखिका ने सूरीनाम और कैरेबियाई देश को उपन्‍यास का विषय बनाया है और गिरमिटिया परंपरा में सूरीनाम की धरती पर आए मेहनतकश पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों यानी भारतवंशियों की संघर्षगाथा को शब्‍द दिए हैं । यह उन लोगों की कहानी है जो अपनी जड़ों से कटे हैं, जिन्‍होंने पराए देश में अपनी संस्‍कृति, अपने धर्म और विश्‍वास के बीज बोए और पराई धरती को खून-पसीने से सींच कर पल्‍लवित किया । सूरीनाम पर इससे पहले डच भाषा में उपन्‍यास लिखे गए पर वे प्राय: नीग्रो समाज के संघर्ष को उजागर करते हैं । सरनामी भाषा में भी कुछ उपन्‍यास लिखे गए पर वे सर्वथा डच सांस्‍कृतिक आंखों से देखे गए वृत्तांत हैं । यह उ

पुष्पिता अवस्थी को कोलकाता में ममता बनर्जी ने सम्मानित किया

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कोलकाता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह  के अवसर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने  पुष्पिता अवस्थी को सृजनात्मक लेखन में निरंतर सक्रियता  के लिए  कवि रवीन्द्रनाथ टेगौर मेडल  देकर सम्मानित किया ।    पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी ने समारोह की अध्यक्षता की ।  पुष्पिता अवस्थी को सम्मानित किए जाने के दौरान की तस्वीरों में  ममता बनर्जी जिस तरह से खुश खुश दिख रही हैं,  उससे आभास मिलता है कि  सम्मान हेतु पुष्पिता अवस्थी के चयन से वह संतुष्ट थीं    और सम्मानित किए जाने के समय में  पुष्पिता अवस्थी के सानिध्य को उन्होंने खासा एन्जॉय किया ।

।। मानसरोवर में ।।

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अपने ओठों से उँगलियों से खिलाते हो पाँखुरी-दर-पाँखुरी सृष्टि पराग की तलाश में जहाँ रच सको अपने प्यार का पहला कुसुम मेरी देह के मानसरोवर में देह की परतों के भीतर स्पर्श रचता है प्यार का भीगा-भीना विलक्षण अनुभूति इतिहास अनकहा प्रेम सुख देह प्रणय का ब्रह्मांड है साँसों की आँखों से छूते हैं स्नेह का अंतरंग कोना तक जहाँ साँस लेता है  ब्रह्मानंद-नद तुम्हारे भीतर एक नदी के रिसाव के लिए जिसमें प्रणय की पुनर्सृष्टि की शक्ति है अदृश्य लेकिन  स्पर्श के भीतर दृश्य मैं विश्वास करती हूँ तुम्हारे प्रेम पर क्योंकि तुम अपने को खोकर प्रेम को पाते हो यही प्रेम का विश्वास है इसी विश्वास में प्रेम धड़कता रहता है    भजन बन कर ।   ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अंतरंग साँस ।।

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                              तुम्हारा प्यार मेरे प्यार का आदर्श है अपने भीतर बसी तुम्हारी छवि के ओठों से लगकर अकेलेपन की वाइन के ग्लास को सटाकर कहते हैं    चीयर्स जिसमें चीख पड़ती है   आंतरिक साँस जिससे बचाए रखी है अपने जीवन की अंतिम साँस जिसमें जी सकूँ तुम्हारा अमर प्यार बादलों से बादलों के क्षितिज की तरह बन गए हम दोनों प्यार में समुद्र से बने हुए सागर के क्षितिज हैं हम दोनों प्यार में समुद्र को पीता है आकाश आकाश को पीता है समुद्र नदी को जीता है समुद्र वैसे ही जैसे तुम मुझे अपने कोमलतम क्षणों में और स्मृतियों में । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अनुभूति रहस्य ।।

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                                प्रेम के क्षणों में तुममें से उठे सवालों का जवाब देना चाहती हूँ तुम्हारे हृदय का रिसता-रस मेरे प्रणय का रस है जो तुमसे होकर मुझ तक पहुँचता है प्रेम एकात्म अनुभूतियों की अविस्मरणीय दैहिक पहचान है प्रेम में मन सपने सजाता है तन के लिए और तन जन्म देता है मन के लिए पुखराजी-सपनें प्रेम में मन-तन धरती से समुद्र में बदल जाता है और समा जाते हैं एक-दूसरे में अनन्य राग अनुराग की साँसों में माटी से पानी में बदल जाती है पूरी देह देह के भीतर के बर्फीले पहाड़ बादल की तरह उड़ने लगते हैं देहाकाश में इंद्रधनुषी इच्छाओं के बीच प्रेम में भाषाओं का कोई काज नहीं होता है 'प्रेम' ही 'प्रेम' की भाषा है देश-काल की सीमाओं से परे । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। धर्म से बाहर ।।

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प्रेम को पृथ्वी की पहली और अंतिम चाहत की तरह मैंने चाहा है जब प्रेम ने सृष्टि में जन्म लिया था इसके बाद हम दोनों के हृदय बीज इसने पुनर्जन्म लिया है स्वार्थ के समय ने प्रेम को बहुत मैला कर दिया है और अविश्वास ने प्रेम का साँचा ही तोड़ दिया है जैसे ईश्वर से बने हुए धर्म में ईश्वर बाहर हो गया है जैसे धर्म के भीतर से लोगों ने ईश्वर उठा दिया है वैसे ही प्रेम में अब प्रेम नहीं बचा है प्रेम की पहचान को लोगों ने खो दिया है अपने मानस के धर्म में मैं फिर से ईश्वर रच रही हूँ अपनी आस्था की ताकत से वैसे ही अपने मन के धर्म से तुम्हारे हृदय में 'प्रेम' रच रही हूँ जिसे 'दुनिया' प्रेम के नाम से जाने और जाने कि प्रेम की पहचान क्या है कि वह जगत के जीवन की शक्ति बन सके मेरा प्रेम   किसी भी दौड़ को पाने और पहुँचने का हिस्सा नहीं है ईश्वरीय भावना का ऐकात्मिक सम्मान है समर्पण और विश्वास प्रेम की पहचान शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे तुम मेरे मन और अस्तित्व की पहली

।। सुख का वर्क ।।

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मेरा मन तुम्हारे ही मन का हिस्सा है जिस कारण शेष हूँ मैं तुममें अनचाहे, अनजाने हासिल विध्वंस की तपन टूटन की टुकड़ियाँ सूखने की यंत्रणा सीलन और दरारें मीठी, कड़ुआहट और रंगीन जहर सब पर, तुम्हारे 'होने भर के' सुख का वरक लगाकर छुपा लेती हूँ सर्वस्व आँखों की पुतली के कुंड में भरे अपने खून के आँसुओं के गीले डरावनेपन को तुम्हारे नाम में घोल लेती हूँ सघन आत्मीयता के लिए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)