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।। यात्रा ।।
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गहरी रात गए सो जाती है जब पृथ्वी भी अपने हर कोने के साथ पत्तियाँ भी बंद कर देती है सिहरना सृष्टि में सुनायी देने लगती है सन्नाटे की साँसें स्थिरता भी आकार लेने लगती है स्तब्धता में सोयी पृथ्वी में जागती है सिर्फ रात और चमकते हैं नक्षत्र नींद के बावजूद नहीं आते हैं सपने उसे करती है तब वह कोमल संवाद मैं जीती हूँ तुम्हें उसी में जीती हूँ खुद को मैं सुनती हूँ तुम्हें पर सुनाई देती है अपनी ही गूँज मैं देखती हूँ खुद को जब भी देखना होता है तुम्हें मैं देखती हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा अपनी प्रतीक्षा की तरह मैं गुनती हूँ तुम्हारी जिजीविषा अपने सपने की तरह मैं चखती हूँ तुम्हारी विकलता अपनी असह्य व्याकुलता की तरह मैं स्पर्श करती हूँ तुम्हारी आत्मा का अनंत अपनी आत्मा की अंतहीन परतों में कि मैं भी करने लगती हूँ प्रदक्षिणा (परिक्रमा) प्रणय पृथ्वी की स्मृतियों में तुम्ह
।। आत्मीयता ।।
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कोमल शब्द अजन्मे शिशु की तरह क्रीड़ा करते हैं संवेदनाओं के वक्ष भीतर और भर देते हैं - सर्वस्व को अनाम ही आत्मीय शब्द विश्वसनीय हथेलियों में सकेलकर चूम लेते हैं उदास चेहरा (चुम्बन की निर्मल आर्द्रता में विलय हो जाते हैं लवणीय अश्रु) शब्दों की लार से लिप जाती है मन की चौखट नम हो उठता है सर्वांग चित्त की सिहरनें नवजात शिशु की नवतुरिया मुलायमियत सी अवतरित होती है चेतना की देह में कि शब्दों के तलवों में उतर आती है प्रणयी कोमलता जिसमें चुम्बन से भी अधिक होती है चुम्बकीय तासीर संवेदनाओं के पक्ष में
।। हृदयलिपि ।।
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प्यार हस्तलिपि सरीखा है अनोखा प्रिय ही पढ़ पाता है जिसे भीगती है वह अपनी ही बरसात में तपती है वह अपने ही ताप में प्रणय के स्वर्ण-भस्म में तब्दील हो जाने के लिए अपने प्रेम में रहती है वह उसका प्रेम ही उसकी अपनी देह है जिसमें जीती है वह अस्तित्व में अस्मिता की तरह साँसें जीती हैं देह देह में जीती हैं धड़कनें धड़कनों की ध्वनि से रचाती है शब्द हस्तलिपि में बदलने के लिए और उकेरती है हृदयलिपि ।
।। सूर्य की सुहागिन ।।
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प्रेम उपासना में रखती है उपवास साँसें जपती हैं नाम आँसुओं का चढ़ाती हैं अर्ध्य हृदय दीप प्रज्ज्वलित करके कि निर्विध्न हो सके उपासना अक्षय-साधना । ऐसे में कुछ शब्द देह में पहुँचकर रक्त में घुल जाते हैं और बन जाते हैं देह की पहचान विदेह हुई देह में होती है मात्र प्रणय-देह अनन्य अनुराग में उन्मत्त अविचल थिरकती उपासना में सूर्य किरणों की लगाता है बिंदी माँग में भरता है सिंदूर सुहाग को बनाता है अमर प्रिया को अजर अमर सुहागिन अपने दीप्तिमान आशीष से ।
।। मौन ।।
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प्रेम में अपनी आँखों में देखती है वह प्रिय के नयन और अनुभव करती है सुख - गिरा अनयन, नयन बिनु बानी - अपने ही अधरों में अनुभव करती है प्रिय-प्रणय-स्वाद अपने शब्दों की व्यंजना में महसूस करती है प्रिय-प्रणय-अभिव्यंजना … अपनी स्पर्शाकांक्षा में सुनती है प्रिय के शब्द और चुप जाती है सम्प्रेषण के लिए - प्रिय को प्रिय की तरह मौन ही ।
।। तस्वीर ।।
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तुम्हारी तस्वीर ने दीवार के एक हिस्से पर टँगकर दीवार को देह बना दिया होगा प्राणों की तरह लगकर तुम्हारी तस्वीर ने कील पर टँगकर खूँटी को सलीब टाँगने की सजा से मुक्त कर दिया होगा वत्सल हथेली बनकर तुम्हारी तस्वीर ने दीवार के एक हिस्से को आला बना दिया होगा अपनी उपस्थिति से अबुझ हिय दीया-सा उजलकर तुम्हारी तस्वीर से दीवार के उस हिस्से पर दो हथेलियाँ उग आई होंगी तस्वीर को थामने स्नेहातुर हथेलियों की तरह तुम्हारी तस्वीर ने दीवार के उस हिस्से को हाशिये से मुक्त कर विस्तृत चित्रफलक बनाया होगा प्रकृति सहेजी वासन्ती दृष्टि से सँवरकर तुम्हारी तस्वीर से दीवार के उस हिस्से को बादल-सा उमड़कर आकाश बना दिया होगा अपनी निश्छल निर्मलता सौंपकर तुम्हारी तस्वीर ने दीवार के एक हिस्से पर वक्ष भर जगह घेरकर जड़-जगह को चेतन बना दिया होगा अपनी छवि की परछाईं से सजीव कर तुम्हारी तस्वीर ने दीवार पर टँगकर एक जोड़ी दृष्टि जुटा ली होगी राह अगोरती प्रिया की विकलता की तरह ज
।। छूट जाता है तुम्हारा देखना, मुझमें ।।
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तुम्हें देखने के बाद छूट जाता है तुम्हारा देखना, मुझमें तुम्हें जी भर-भर के देखने के बाद आँखों को रह जाती है शिकायत … फिर भी … हर बार तुम्हें सुनने के बाद भी शेष रह जाता है सुनना कुछ शब्द तुम्हारे पास छूट जाते हैं विकल मेरी गोद में आने के लिए बहुत कुछ सुनने पर भी सब कुछ सुनना बचा रहता है अन्तस् की मौन प्रशान्ति में तुम्हारे लिखने के बाद कुछ भोले-सहमे शब्द चिपके रह जाते हैं तुम्हारी उँगलियों में छूटे हुए स्पर्श-बोध की तरह जैसे धूप का ताप मुट्ठियों में ठिठका रह जाता है जैसे पसीजी हथेलियों में शेष रह जाती है स्मृति की आर्द्रता तुम्हारे साथ चलने पर भी परछाईं भर साथ बच जाता है हमेशा हर बार बोलने पर भी कुछ शब्द बाहर आने से रह जाते हैं कुछ शब्द सकुच कर छिप जाते हैं तुम्हारे ही भीतर मन घर बनने से रह जाता है कुछ साँसें बच जाती हैं कि प्राण-प्रतिष्ठा छूट जाती है पूर्णिमा के दिन भी चाँद के भीतर छिपी रह जाती है ज्योत्स्ना सूर्य अपनी गोद में हर दिन
।। आँखें ।।
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आँखें बोती हैं पाखी की तरह देह-भीतर प्रेम बीज पाषाण-देह की दरार उर में उग आता है देव वृक्ष आँखें देह भूमि में खड़ा करती हैं प्रणय का कल्पवृक्ष आँखें देहाकाश में सँजोती हैं शीतल चन्द्रकिरणें ऊष्ण सूर्यरश्मियाँ देह के पंचतत्वों में अलग-अलग ढंग से घटित होता है प्रेम अलग-अलग रूपों में फलित होता है प्रेम ।
।। एक लड़की के भीतर ।।
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एक लड़की के भीतर जब उगता और उमगता है प्रेम नवांकुर बीज की तरह वह कविता की देह छूती है अधरों पर गीतों के बोल रखती है एक लड़की के अन्तस् को हरी, मुलायम, शोख, दूब की तरह स्पर्श करता है प्रेम वह पालती है सफेद खरगोश गुलाबी आँखों वाला और भरती है विद्युतीय चपल छलाँगें बचाए रखना चाहती है वह प्रेम से चंचल हुए अपने पाँव के अचंचल निशान मन-वसुधा पर उकेरे प्रणय-कीर्ति के लोक-कथा चित्र एक लड़की के भीतर जब अँगड़ाई लेता है प्रेम वह नहीं तैरना चाहती किसी नव परिचित देह के भीतर सूर्योदय के साथ उतर जाना चाहती है नदी में सुनहरी किरणें समेटने चंद्रोदय के साथ डूब जाना चाहती है रुपहली नदी में धवल, अमर स्वप्न-यथार्थ के लिए एक लड़की के भीतर जब उठती है प्रणय की मादक गंध वह उसे 'महुए' की तरह चूने देती है अपने उर-आँगन में दुधियाने देती है अपनी आँखों में एक लड़की के भीतर जब देह के खलिहान में फसल की तरह तैयार होता है प्रेम वह छींट देती है उसे दोनों मुट्ठी में भर-भर कर जमीन पर चिड़ियों
।। पंचतत्वों से … पंचतत्वों में ।।
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अपनी आत्मा की माटी से गढ़ी है प्रणय की सुकोमल देह अपनी रक्ताग्नि के ताप में ढाली है प्रणय की अक्षय काया अपनी साँसों की वसन्ती बयार से फूँके हैं प्राण प्रणय की अलौकिक देह में अपने अश्रुजल के अमृत से किया है देह का विदेह अभिषेक मेरे ही पंचतत्वों से पंचतत्वों में अवतरित है मेरा प्रणय तुम्हारे ही पंचतत्वों से बना है तुम्हारा प्रणय पंचतत्वों से बना पंचामृत है प्रणय नयनाधर के लिए ।
।। मौन प्रणय ।।
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मौन प्रणय शब्द लिखता है एकात्म मन उसके अर्थ मुँदी पलकों के एकांत में होते हैं स्मरणीय स्वप्न प्रेम अपने में पिरोता है स्मृतियाँ स्मृतियों में प्रणय प्रणय में शब्द शब्दों में अर्थ अर्थ में जीवन जीवन में प्रेम प्रेम में स्वप्न प्रणय रचे शब्दों में सिर्फ प्रेम होता है जैसे सूर्य में सिर्फ रोशनी और ताप ।
।। पीढ़ियों की तरह ।।
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कविताएँ शब्दों में अवतरित होने से पहले अवतार लेती हैं कवि के हृदय और मानस में कविताएँ मन की दीवारों के भीतर उकेरती हैं अपना अंतरंग अभिलेख कवि के चित्र को देती हैं संवेदनाओं का कोमलतम स्पर्श जहाँ से कवि रचता है शब्दों को नए सिरे से नए ढंग से नई रवायत से नवीनतम तहजीब से कि उन्हीं शब्दों में आ जाता है नया अर्थ कि अनुभव होता है कि जैसे शब्द भी जन्मते हैं नए शब्द पीढ़ियों की तरह शब्दों की होती हैं अपनी पीढ़ियाँ कविताओं के पास होती है शब्दों की अपनी वंशावली जिनका प्रवर्तक होता है कवि ।
।। तुम्हारे जाने के बाद ।।
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तुम्हारे जाने के बाद छूट जाता है तुम्हारा जीना मुझमें एक पूरी जीवन्त ऋतु की तरह हम दोनों एक-दूसरे को जी लेते हैं अपनी प्रसुप्त पाँखें खोल प्रणय प्रसूति हेतु तुम्हारे जाने के बाद आँखों के आँचल की खूँट में खिला-महकता वसन्त आस्था के अक्षत की तरह छूट जाता है बचा हुआ बँधा रहता है पवित्र संकल्प-सा तुम्हारे जाने के बाद सम्पूर्ण पृथ्वी पर रची हुई दिखती है प्रणय के वसन्त की कांतिमान रंगत स्मृतियों की जड़ों में रस-रंग घोलती तुम्हारे अधबोले शब्द शब्दों के अंत का सिहरता गुलाबी मौन करता है पृथ्वी पर अपने होने की सृष्टि अवतरित होता है अबुझ …गतिशील नक्षत्र लोक पसरता है प्रणय-उजास का अमिट प्रकाश मन-धरती की दरारों को अपनी रोशनी से भरता तुम्हारे जाने के बाद कर्ण-गठरी कि मन-गठरी में रखे गए तुम्हारे शब्द मेरे प्राण धरोहर मृत को जीवन्त निष्प्राण को प्राणवान अपने शब्दों की जिजीविषा से देते हो प्राण प्रणय की …प्रणय प्रतीक्षा के लिए संजीवनी शक्ति तुम्हारे जाने के ब
।। दूब की जड़ों में ।।
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पार के परे कथाओं का बीज शब्द-प्रेम जीवन का प्राण शब्द प्रण शब्द आँखों के निर्मल मुलायम आकाश में नवपाखी-सा देह की सीमाओं का खोल छोड़ता अंडे से चूजे की तरह निकल आता है फड़फड़ाता सकुची मुस्कुराहट में दूब की जड़ों में डूबी कोमलता की छाया अधरों की कोरों में ठहर जाती है जलाशय की तरह गल-घुल जाती है जिसमें सपनों की रसपयस्विनी धवलता घने कोहरे की चुअन महुए की उजली टपकन मीठी सुगन्ध का देह धरे धरा पर उतरता पारदर्शी मन का ओस बूँद बन दूब नोक पर अटक बैठता घटाओं में इतराती सूर्य रश्मि की परियों का मधुर अहसास प्रेम आस प्रणय-धारा के प्रण-तट पर रेत के भुरभुरे ढूह पर नमी तलाशते दोनों के बैठने भर से बन जाते हैं दो कोटर जैसे प्रणय के चेहरे की दो सजल आँखें प्रणय अगोरती आकाश सँजोती कोटर की आतुर अंजलि पसारे दोनों का ह्रदय देह से बाहर हो सदेह बैठता है साथ साथ शून्य को सरस करता रेत में प्रणय की अक्षय छाया भरता ।