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।। नीदरलैंड समुद्रतट ।।

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नार्थ-सी पुत्र नीदरलैंड ऋतु के ग्रीष्म होने पर सूर्य-बिंब में बन जाता है दर्पण स्वयं देखता है प्रतिबिंब अंतरिक्ष अपना सर्वांग । रेत की रेती में उतरता है सूरज बच्चों के तलवों में सूर्य-शक्ति भरने के लिए और शीश-भीतर अंतरिक्ष का कौतुहली ज्ञान । मछली की तरह सागर प्रिय जन मन की देह को सेंकता है सूर्य और प्रक्षालित करता है सागर पयोधरों को बनाता है स्वर्ण-कलश । वेद की ऋचाओं से बाहर ही सूर्य स्नान करता है नार्थ-सी के जल में । वेदों के ज्ञान से अज्ञान प्रकृति के नैसर्गिक प्रेमी पृथ्वी की शांति में जीते हैं आत्म-शांति । छूट रहे रिश्तों में खो रहा है अपनापन प्रणय अन्वेषी जन नई परिभाषाओं के साथ जन्म देना चाहते हैं नया प्रेम । रिश्तों से ऊबे हुए फिर भी रिश्तों के लिए प्यासे घर से थके हुए रेतीले घरौंदों के खेल में घर को जीते हुए लोग नीले आकाश तले बुझाते हैं अपनी प्यास और आँखों से पीते हैं अछोर समुद्र की गति का छोर ।

।। योरस ।।

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योरस अपनी अविवाहित माँ मरियम के चेहरे के पीछे छिपाए हैं अपने पिता अलेक्सेंडर का प्यार और प्यार करना चाहते हैं दुनिया को दुनिया की गोद में जाकर । योरस के चेहरे पर उतरे हैं अपनी माँ के नयन-नक्श जिसके भीतर से बोलता है पिता का विश्वास । योरस हँसते हैं रसीली हँसी अपनी छह दँतुलियों के भीतर दुनिया की खुशी के लिए कि धुआँई जग से थकी ऊबी आँखें सीखे जीना बच्चों की खुशी के लिए । दो वर्षीय योरस देखना चाहते हैं दोनों गोलार्द्धों को अपनी नन्हीं ललाई मुट्ठी में कि आणविक युद्ध की आग से अधिक ताकत है मुट्ठी की लालिमा में अपना बनाने के लिए । नीली आँखों में समेटे हैं अपनी मातृभूमि हालैंड की दीर्घजीवी शांति शांति-दूत कपोत का संदेश संस्पर्श करता है मौन । चलने में असमर्थ पर, बैठे ही बैठे घिसटकर पहुँच जाना चाहते हैं हर उस चाहत के पास जो चाहती है उन्हीं की तरह । योरस से आती है मानव-शिशु होने की अलौकिक सुगंध कि परफ्यूम्ड सुगंध के मिलते ही चिहुँककर पलट लेते हैं नाक मसलते नहीं भूल

।। छोर से परे ।।

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                                समुद्र के निनाद में है बच्चों की ध्वनि तरंग प्रतिध्वनित लहरें जैसे कि उनके ही उठे हुए हाथ और बच्चों में होता है समुद्र का अछोर कोलाहल आकुल और व्याकुल माँ के आँचल के भी छोर से परे ।

।। अंतर्ध्वनि ।।

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औरत चुप रही दुनिया बोलती रही । ऐसे ही एक सदी बीत गई । औरत सुनती रही है दुनिया के खोखले और डरावने शब्द । बच्चे जिन्हें मुखौटा कहते हैं ।

।। इफोन ।।

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इफोन सबके लिए एक स्त्री का नाम है वह सिर्फ ख़ुशी का प्रतीक है । स्विट्जरलैंड, इटली, आस्ट्रिया की मिलन भूमि 'नाउदर्स' के एक होटल की स्वागत रमणी है मालिक के लिए आगंतुकों के लिए । उत्साहपूर्ण सेवातुर । 'प्लोनर' होटल मालिक तीन कन्याओं के पिता ने नहीं पहचाना इफोन के भीतर का बेटी मन । पल्लव-सी स्वयं फूलों-सा सजाकर रखती है खुद को पर तितली की तरह बैठ जाना चाहती है हर अतिथि के पर्यटकी मन पर । अपनी आँखों की खुशी में सोख लेना चाहती है वह अतिथियों की थकान । पक्षियों की तरह यायावरों के कंधों पर बैठकर घूम आना चाहती है देश-विदेश । संचार-युग में तस्वीर खिंचवाने में सहमती-सकुचती इफोन स्वयं अपनी माँ की एक सुंदरतम तस्वीर है होटल के फ्रेम में जड़ी हुई । भविष्य की प्रतीक्षा में जीती लेकिन, भविष्य से डरती अपनी हथेलियों को बंद रखती है अक्सर जब से उसने जाना है कि मुट्ठी में रहता है भविष्य । आस्ट्रिया के लिबास नाउदर्स गाँव की संस्कृति के प्रति उसके भीतर है खूबसू

।। अपनों की याद में ।।

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(एक) विदेश-प्रवास में तपन और पाले में एकाकी पड़ा है मेरे मन का चबूतरा जैसे हवा में किसी स्मृति-घाव का गीला निशान । इच्छाओं के नाव-घर से ढूँढ़ती हैं बूढ़ी आँखें बीते कल उजले अतीत । प्रिय की स्मृति में अपनी ही अंजुलि में अपना चेहरा टिकाए कि मेरी हथेलियाँ उसकी ही हथेली हो बैठी हैं स्वदेशी इच्छाएँ आत्मसुख के लिए । (दो) बेआबरू मौसमों की तरह पड़े हैं सपने आँखों के कोने में एकाकी परदेश प्रवास में सूरज की सेंक में सुलगते हैं स्वप्न जिंदगी फिर भी रचती रहती है नए नए ख्वाब विदेशी मित्रों की तरह । विदेश में याद आती हैं सहमी हुई स्मृतियाँ चाँदनी से भी झरता रहता है अँधेरा पूर्णिमा की पूरी रात अकेले में 'उदास' शब्द के गहरे अर्थ की तरह । इच्छाएँ माँगती रहीं नए पत्ते जहाँ साँस ले सके इच्छाएँ और उनसे जन्म ले सकें अन्य नवीनतम इच्छाएँ । इच्छाओं के साँचे में समा जाती हैं जब भी इच्छाएँ जिंदगी हो जाती है जिंदगी के करीब जैसे कागज के आगोश में होती है कलम कुछ

।। हथियार ।।

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कविता को रचना है हथियार सारे हथियारों के विरुद्ध अपनी भाषा में । बिना युद्ध किए जीतने हैं सभी युद्ध आज की सभी भाषाओँ को । धर्म के भीतर बचाना है धर्म बिना ईश्वर के ।  सारे धर्मों से बाहर निकालना है धर्म को ईश्वर नहीं आदमी के पक्ष में कविता को अपनी भाषा में फिर वह कोई भी भाषा हो … ।

।। नाम ।।

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विदेश-प्रवास में हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं हेमचंद्र के शब्दानुशासन से परे पाणिनी के अष्टाध्यायी के व्याकरण से दूर शब्दकोश से परे आखिर मैं और तुम शब्द ही तो हैं । शब्द में साँस लेती धड़कनें नवातुर अर्थ के लिए आकुल सघन-घन कोश में आँखें पलटती हैं मेघों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ कभी फूलों के पन्नों को उलट-उलट सूँघती हैं सुगंध का रहस्य कभी सूरीनाम और कमोबेना नदियों से पूछती है अनथक प्रवाह का अनजाना रहस्य हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं अधीर और व्याकुल अंतःकारण के वासी नाम शब्द की तरह ओठों की मुलायम जमीन पर खेलते हैं स्नेह-पोरों से पलते हुए बढ़ते हैं शब्द समय में समय का हिस्सा बन जाने के लिए अंश में अंशी की तरह रहते हैं शब्द जैसे विदेश में समाया रहता है स्वदेश जैसे मुझमें बसा रहता है तुम्हारा जीवन बोध ।

।। दूब ।।

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दूब की कोमल नोकें चलते हुए पाँव में लिखती हैं अपने छोटी होने की बड़ी कहानी । पाँव ने रची हैं पगडंडियाँ पगडंडियाँ पकड़कर पाँव पहुँचते हैं रास्ते तक चलते हुए पाँव बतियाते हैं रास्तों से बिछी हुई दूब पूछती है तलवों का हाल और पोंछती है माटी । दूब की हरी नोक की कलम तलवों की स्लेट पर लिखती हैं माटी के तन भीतर हरियाला मन । उड़ते हुए पक्षी की परछाईं से खेलती है दूब रात-दिन धूप थककर विश्राम करती है दूब की सेज पर । चाँदनी करती है रुपहला श्रृंगार और ओस बुझाती है दूब की प्यास थके हुए पाँव को देती है विश्राम बेघरों को देती है घर का रास्ता और भटके हुओं को पथ और रात का बसेरा दूब अनाथ बच्चों का है पालना और खेल का मैदान । दूब पृथ्वी पर जहाँ भी उगी है जमी है और चलते हुए पाँव में लिखती है अपने छोटे होने की बड़ी कहानी ।

।। कवि श्रीनिवासी ।।

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श्रीनिवासी कवि ने अपनी जन्मभूमि में कलम-हल से बोए हैं शब्द बीज । सूरीनाम को जिलाया है अपनी कविता में अपना खून देकर । सूरीनाम धरती पर बूढ़ा हो रहा है सूरीनाम पचासी वर्ष के होने पर भी अपनी कविता में है जवान कंधे पर हल लिए हुए किसान की तरह । न्यू एम्स्टर्डम के नदी तट पर कविता का आकाशदीप लिए हुए खड़ा है कवि जिसकी तस्वीर की सजल आँखों में बची है स्याही अपनी नई कविता के लिए । न्यू एम्स्टर्डम के जंगल होते हुए तट पर शताब्दियों का दुःख जीते-जानते वृक्षों की तरह खड़ी है कवि की कविता । जिस तरह शाखाओं पर पक्षियों ने बसाए हैं नए पौधे … नई लताएँ … नई जटाएँ और नए घोंसले । कवि की कविता की तरह । किसी ज़माने में इसी तट पर  मातृभूमि के पक्ष में माँ की तरह लड़ती हुई तोपें आज चुप पड़ी हैं अपनी ही संतानों के कंधे पर सिर टिकाए हुए । तट के पुलिस थाने की चौखट पर पहरेदार की तरह तैनात खड़ी है श्रीनिवासी की कविता हथियार की तरह मातृभूमि के पक्ष में । कविता ही न्यू एम्स्टर्डम

।। हनिका ।।

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एक यूरोपीय स्त्री के भारतीय मन-तन का नाम है हनिका । नाम से डच पर पहचान में इतर । निष्पलक खुली आँखों सुनते हुए देखती है सर्वस्व बहुत चुपचाप निश्छल नदी की तरह । हर एक उसकी आँखों में देखता है अपना प्रतिबिम्ब वह चौंकती नहीं है किसी के आने-जाने से । उसके कान देखते हुए सुनते हैं सब कुछ जैसे उसकी आँखें सुनती हुई देखती हैं अहर्निश सोचती है अक्सर आँख न चाहते हुए भी सब कुछ देखने को विवश कान न चाहते हुए भी सब कुछ सुनने को विवश अगर ऐसे ही होते अधर और बोलते रहते आत्मा की वाणी अनवरत तो सृष्टि का होता दूसरा स्वरूप । दुनिया इतनी डरावनी नहीं होती तब हर हालत में लोग नहीं रहते असुरक्षित । सत्ता और भय की शक्ल हथियार में नहीं बदलती । आजादी का दूसरा नाम आतंक नहीं होता । ताला और पहरा सुरक्षा का पर्याय नहीं बनते । औरत और आदमी के बीच जन्मती विश्वास की संतानें परिवार का हर सदस्य देह का अंग होता । देश-दर-देश में घूमती उसकी आँखें पृथ्वी की तरह घूम रही हैं चुपचाप । प्रिय का हाथ थामे परियों की

।। कवि माइकल स्लोरी ।।

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माइकल स्लोरी सूरीनाम की धरती का चलता फिरता मानव-बॉक्साइट जिसके शब्द स्वर्णगर्भी धरती के भूगर्भ से निकले खरा सोना । बॉक्साइट और सोने की तरह खरे हैं माइकल स्लोरी भूमध्यरेखीय सूर्य-ताप की स्वर्ण-सुरा को घुमंतु माइकल की खोपड़ी पीती  है दिन-दोपहरी । वर्षाधिक प्राचीन धूप से झुलसते वृक्षों की छाया तले नहीं सुस्ताते हैं माइकल शब्द उन्हें चलाते रहते हैं शब्द-सखा सहचर हैं माइकल स्लोरी । चिड़ियों की ध्वनि-गूँज से अपनी कविता के रचते हैं शब्द कभी जिसमें मन-भीतर की चीख कभी अंतस का उल्लास खदानी मजदूरों की तरह लातीन अमेरिकी उपमहाद्धीप के बहुदेशीय मानव-मन की खदानों से खनते हैं अपनी कविताएँ । देश के डच भाषी अख़बार में प्रति सप्ताह होता है उनके मन की आँखों का जीवंत दस्तावेज । पाँवचारी करते हुए माइकल जोड़े रखते हैं अपनी देह-माटी को सूरीनाम की सबानाई माटी से । अंतर्दृष्टि की जड़ें फेंक धरती पर उगाए रखना चाहते हैं मानवीय मूल्यों के लिए मानव-वृक्ष सूरीनामी जनजीव

।। बच्चों के सपनों के लिए ।।

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बच्चों के बड़े होते ही खिलौने छोटे हो जाते हैं माँ खिलौनों को सहेज-सहेज रखती है बच्चों के विदेश जाने पर उनके छूटे हुए बचपन को फिर-फिर छूने की अभिलाषा में । बच्चे जान जाते हैं जैसे ही खिलौनों के खेल में छुपे जीवन के झूठ को घर-बाहर हो जाते हैं जीवन के सच की तलाश में । माँ ढूँढ़ती रहती है खिलौनों में छिपी उनकी ऊँगलियों को अपने बच्चों के मुँह में लगाए गए खिलौने को चूमती है विदेश पढ़ने गए बच्चे के बिछोह को भूलने के लिए । खिलौनों में बची हुई बच्चों की स्मृतियों को छू-छू कर वह कम करती है अपनी स्मृतियों की पीड़ा अपनी यादों में रखती है वह अपने बच्चों के खिलौने यह सोचकर कि आखिर उसकी ही तरह खिलौने भी याद करते हैं उसके बच्चों को । पुरानी तिपहिया साइकिल को भी कभी खड़ा कर देती है सूने बगीचे में और याद करती है बच्चों के पाँव जो अब मिलिट्री की परेड में हैं या वायुयान की उड़ान में या अपने देश की सुरक्षा में या देशवासियों की सेवा में । अभी भी बचपन में गाई गई तुलसी क

।। डॉलफिन ।।

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डॉलफिन सामुद्री ममता की प्रतीक सागर की ह्रदय बनी हुई धड़कती रहती है लहरों के बीच लहर बन कर । ऋषि समुद्र की संतान सागर-मेधा-डॉलफिन सागर की मेधस्वी नागरिक न्यूजीलैंड, उत्तरी अमेरिका, कैरेबियाई सागर दक्षिण अमेरिका और अर्जेंटाइनी तट पर समुद्र की लहरों को चुनौती देती हुई लहरों की बाधक दौड़ से निर्बाध खेलती रात-दिन कभी पानी के भीतर कभी पानी के ऊपर । समुद्र की स्मृतियों का घर है डॉलफिन के भीतर जलजीवों की सहचरा मनुष्यों की भेंट पर करती है मानवोचित आचरण चूमती है हाथ और ओंठ खेलती है बच्चों की तरह । समुद्र और पृथ्वी का भेद मिटाकर लौटती है रेत-तट पर और अपनी खिलखिलाहट में उद्घोष करती है सार्वभौमिक आनंद का रहस्य । समुद्र के भीतर है सृष्टि की प्रकृति प्रकृति की छटा मनमोहक जल ही जहाँ का पवन है और जीवन भी । पञ्च तत्वों ने रचा है समुद्र भीतर समुद्री पृथ्वी जीवंत आलोक से भरपूर जहाँ मछलियाँ तैरने से अधिक उड़ती हैं तितलियों सी जिनका रंग सपनों की तरह

।। गठीले हाथ ।।

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वे हमारी खुशियों को रचाने में शामिल हैं जिन्हें हम नहीं जानते हैं पर वे पहचानते हैं अपने से अधिक हमारी खुशियाँ खुशियों का स्वाद रंग-रूप और चाल-गति । उनके हाथों से रचा जाता है सुख का संसार हम सिर्फ खरीदते हैं जिसे । बड़े लोग मानते हैं रुपया खुशी है छोटे लोग जानते हैं मेहनत मजूरी । नया साल आने से पहले फड़फड़ाने लगता है कागजों का सफ़ेद सीना मशीनों के नीचे और उनके पीछे मेहनत-मजदूरी वाले गठीले हाथ जहाँ बदलती हैं तारीखें और सपने भी । कम्प्यूटर की बटन करती है अग्रिम बुकिंग नए साल में नए देश में नए होटल में.… । समय भी जागता है जैसे तब अपनी करवट में अंक बदलता है तीन सौ पैंसठ दिन जैसे पहनने के लिए वस्त्र हों । समय देखता है जागकर नए वर्ष का चश्मा लगाकर और हम नए ढंग से सोने के उपाय बाद सो चुके होते हैं पटाखों के शोर और शराब के स्वाद बाद देर रात सो चुकने के बाद देर दोपहर जागते हैं लोग । जबकि घर में न समाने वाले छोटे बच्चे घर-बाहर बीन चुके होते हैं छूटे हुए पटाखों

'तुम हो मुझमें' का लोकार्पण

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नॉर्थ हॉलैंड के शहर लांगाडाईक के सिटी हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में वहाँ के मेयर हाँस कोरनीलिसा ने पुष्पिता अवस्थी के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'तुम हो मुझमें' का लोकार्पण किया । दिलचस्प संयोग यह है कि पुष्पिता अवस्थी ने नई दिल्ली के राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपना यह कविता संग्रह हाँस कोरनीलिसा को ही समर्पित किया है । इस आयोजन को लेकर तथा पुष्पिता जी की कविता को लेकर नी दरलैंड के कई अख़बारों में रिपोर्ट्स प्रकाशित हुईं हैं । ऐसी ही एक प्रकाशित रिपोर्ट की कतरन हमें मिली है, जो यहाँ प्रस्तुत है :  

।। स्मृति में … हिन्दुस्तानी माँ ।।

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मातृभूमि सरीखी माँ सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच टघरती हुई चलाती है अपना समय देश और परदेश के अपने घर और परिवार में ठियाँ के लिए गठरी सकेले उजारती रही अपने जाये बच्चों और रिश्तेदारों के दुआरी दुआरी और जान गई कि पिता के देह तजते ही दरक जाता है उसके अपने देह से तजा परिवार का घरौंदा भी बुढ़ापे के उत्तरार्ध में भी अपने जीवन के सारे प्रयोग करती हुई मृत्यु के विरुद्ध मृत्यु से लड़ती हुई थकी-हारी माँ ऋतुओं के बदलाव में याद करती है अपने जीवन का ऋतु चक्र धुँधली दृष्टि और झुर्राई देह में बरसात होने पर महसूस करती है बरखा का सुख  और भीग उठती है मातृभूमि की तरह स्मृतियों में थकी-हरी माँ बताती है अपनी जरूरत जैसे यह उनकी ही नहीं धरती की भी जरूरत है माँ में बोलती है मातृभूमि और मातृभूमि में बोलती है माँ जब उसकी ही जुती-जुताई धरती पर खेती करने की जगह लगता है कोई कारखाना अपने पोपले मुँह से चीखती है वह मशीन से भी अधिक तेज आवाज़ में जैसे उसकी छाती में भी हो विष्फोटक बग

।। गर्भस्थ माँ ।।

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इकली गर्भस्थ स्त्री सकेल लेना चाहती है अपनी साँसें गर्भस्थ शिशु के प्राण के लिए वियोग-संतप्ती अपनी माँ की साँसों से खींच रहा है साँस प्रणयी शिशु देह भीतर अपनी माँ की तरह सैनिक पिता की अनुपस्थिति की अनुभूति ही रक्त-पहचान गर्भस्थ शिशु की आँखों का अँधेरा आँसू में घोल रहा है इतिहास की काली स्याही माँ के एकाकीपन का तिमिर गर्भ-कोठरी में आकाश-गंगा का नक्षत्र प्रेम गंगा का सितारा अवतरित हुआ विरही माँ की देह में प्रणय का शिशु चाहत के गर्भ में सामुद्रिक दूरियों के बीच छटपटाती है हृदयाकुलता मछलियों सरीखी मँडराती रहती हैं आकांक्षाएँ तितलियों सी ह्रदय के रिक्त वक्ष-मध्य अकेली माँ और शिशु के भीतर एक साथ खुँटियाएँ शुष्क पौध और अरुआये काँटे सा धँसता है अकेलापन माँ और गर्भस्थ शिशु भीतर प्रिय की साँसों के साथ साँस लेना चाहती है गर्भस्थ स्त्री शिशु की साँस के लिए अपनी ही तरह से शिशु के पिता की आवाज को सुनकर धड़कना चाहता है माँ का ह्रदय शिशु के लिए कि वह युद्ध के चक्रव

।। मृत्यु से लड़ती है ।।

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माँ जीवन भर लड़ती है मृत्यु से मृत्यु सिर्फ देह की ही नहीं होती है बल्कि जब भूख       फसल       घर       जीवन       अपने आदमी       और बच्चों की हर जरूरत के लिए लड़ रही होती है माँ तब भी मृत्यु से लड़ रही होती है माँ माँ जीवन भर लड़ती है मृत्यु से ।

।। सीशिल ।।

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सीशिल धरती पर वृक्ष सरीखी अपनी जड़ें धँसाएँ हुए कैरेबियाई हस्तशिल्पी स्त्री का नाम है तराश से जन्म लेती है वृक्ष के शुष्क तने से न जाने कितनी काष्ठ सामग्री मनका और बाजूबन्द तक तने की तरह तनी हुई पर, रेशे-रेशे की मुलायम काष्ठाग्नि प्रज्वलित है उसकी जीवनोन्मुखी जिजीविषा की पर्तों में जंगल बीच वन की कला देवी सी अड़ी-खड़ी बरखा को पीती समुद्र के सौंदर्य की सरल हार्दिकता की संपत्ति को जीती वह जानती है ग्रीन हार्ट और महोगनी जैसे गठीले वृक्षों की जल विरोधी मजबूती की तरह पत्थर या लौह स्तम्भ की तरह जलधार बीच खड़ी सीशिल जानती है वृक्ष का वक्ष वक्ष के स्वप्न स्वप्न की आकांक्षा को सूखी लकड़ी की देह में जीती हुई सीशिल उकेरती है संसार की कलाओं का सौभाग्य-सुख ऋतुओं में कालिदास का ऋतुसंहार इंद्र का ऐंद्रिक जाल फाल्गुन का उन्माद जबकि ग्रीन-हार्ट सम्पूर्ण वृक्ष एक दिन में जीता है अपना पीताभी बसंत मानव देह में प्रवेश की हुई मृतात्मा की छाया को अपनी आँखों से डसती हुई साँसों से झाड़ फ

।। जंगल जग के मानव प्राणी ।।

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अमर इन्डियन के गाँव सघन घन बीच पथ और पगडंडियों से परे विमान ही पहुँचने का एकमात्र माध्यम जहाँ और दृष्टि ही पथिक नदियाँ हैं जंगल का रास्ता और जंगल देते हैं नदियों को रास्ता वृक्षों की देह से बनी लम्बूतरी डोंगी ही गाँव से गाँव जंगल से जंगल तट से द्धीप की दूरी का वाहन जलवाहन ही केवल साधन सघन घन बीच मछली-सी बिछलती तैरती जंगली मानसूनी पानी पीकर जीवन जीती नदियों में अपने जीवन की कटिया डाले हुए जीती हैं वन जातियाँ अमर इन्डियन परिवारों में परिवार कबीलों में और कबीलों के लोग जंगलों में तीर-धनुष और भालों से करते हैं शिकार वृक्षों के तनों के ऊपर से शुरू करते हैं अपने काष्ठ-घर और विह्वर मंकी (बुनकर वानर) की तरह बुनते हैं अपना हैमक पालना वृक्षों के वक्ष-बीच तना झूलता उन्हीं के पाँव पर खड़े हैं अमर इन्डियन के बसेरे लकड़ी के पटरों और लट्ठों से बने हैं घरों के घोंसले चार फुट की ऊँचाई से शुरू होते हैं अमर इन्डियन के वन-जीवी घर तासी पत्तियों की छत ओढ़े हुए कपासी सूत के हथ बने पालनों

।। इकली स्त्री ।।

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घर पर छोड़ आती है अकेलापन जिसे जीती है वह और जो जीता है उसे आमने सामने होने पर अकेलापन घर में रहता है उसके साथ पहने हुए कपड़े की तरह मन देह के अंतस का एकांत ढाँपने के लिए अवकाश के दिन घर के भीतर देखता है उसका अकेलापन और सहलाता है उसे सोयी हुई अपनी मुलायम साँसों से अकेलापन घर-भीतर छिपा बैठा है उसके हर सामान में एक उदास ठंडक की तरह आईना तक ओढ़े रहता है अनुपस्थिति की स्याह चादर समय का मौन समाया है घर के सन्नाटे में अकेलेपन ने ऊब कर घर के भीतर और बाहर उढ़ा दी है उपेक्षा की श्वेत चादर पूरे घर में फैली रहती है मौत की परछाईं और अकेलेपन की कसक जो घर का ताला खुलते ही उझक कर आ गिरती है अकेली स्त्री की सूनी हथेली बीच जिसे सहेज कर रखती है अपनी मुट्ठी में घर के अकेलेपन को कम करने के लिए जो उस इकली स्त्री से भी ज्यादा झेलता है घुटन उसके काम पर जाने के बाद घर और स्त्री दोनों पहचानते हैं एक दूसरे का अकेलापन और दमतोड़ कोशिश करते हैं उसे कम करने की एक दूसरे के आमने-सामने होने पर स्त्री-पुरुष की तरह प्रायः   

फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में

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पुष्पिता अवस्थी जी को पिछले माह आयोजित फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था । यहाँ पुष्पिता जी ने आमंत्रितों के समक्ष अपनी कविताएँ तो सुनाई हीं, साथ ही बुक फेयर की अन्य गतिविधियों का भी जायेजा लिया । आयोजन से संबंधित कुछेक डिटेल्स और दो तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं :

।। अनगिनत नदियाँ ।।

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प्रेम के हठ योग में जाग्रत है प्रेम की कुंडलिनी । रंध्र-रंध्र में सिद्ध है साधना । पोर-पोर बना है अमृत-कुंड । प्रणय-सुषमा प्रस्फुटित है सुषुम्ना नाड़ी में कि देह में प्रवाहित हैं अनगिनत नदियाँ ।

।। झील का अनहद-नाद ।।

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शताब्दियाँ ढोती कोमो झील की तटवर्ती उपत्यकाओं में बसे गाँवों में तेरहवीं शताब्दी से बसी हैं इतिहास की बस्तियाँ । प्राचीन चर्च के स्थापत्य में बोलता है धर्म का इतिहास इतिहास की इमारतें खोलती हैं अतीत का रहस्य । सत्ता और धर्म के युद्ध का इतिहास सोया है आल्पस की कोमो और लोगानो घाटी में झूम रहा है झील की लहरियों में अतीत का विलक्षण इतिहास । वसंत और ग्रीष्म में झील के तट में गमक उठते हैं फूलों के रंगीले झुंड । रंगीन प्रकृति झील के आईने में देखती है अपना झिलमिलाता रंगीन सौंदर्य । झील का नीलाभी सौंदर्य कि जैसे पिघल उठे हों नीलम और पन्ना के पहाड़ प्रकृति के रसभरे आदेश से । झील के तटीले नगर-भीतर टँगी हैं पत्थर की ऐतिहासिक घंटियाँ जिनकी टन-टन सुनता है पथरिया आल्पस रात-दिन और जिसका संगीत गाती हैं अनवरत झील की तरंगें । तट से लग कर ही सुना जा सकता है जिसका अनहद नाद झील का अनहद नाद और जल के सौंदर्य में बिना डूबे ही पिया जा सकता है जल को जैसे आँखें जीती हैं झ

।। ग़रीब का चाँद ।।

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पूर्ण चाँद अपने रुपहले घट के अमृत को बनाकर रखता है तरल पारदर्शी नारियल फल भीतर चुपके से गहरी रात गए अनाथ शिशुओं का दूध बनने के लिए । निर्धन का धन सूरीनामी वन जिन पर ईंधन भर या हक़ छावनी छत भर जैसे गाय या बकरी का पगडंडियों की घास पर होता है हक़ । पत्तों की छतों पर पुरनिया टीन की छाजन पर चंदीली वर्क लगाता है चाँद ताज़ी बर्फी की तरह मीठी लगती है ग़रीब की झोपड़ी विश्राम के आनंद से भरपूर । रुपहले रंग की तरह पुत जाता है चाँद पूर्ण पृथ्वी पर बगैर किसी भेद के जंगल, नदी, पहाड़ को एक करता हुआ । घरों को अपने रुपहले अंकवार में भरता हुआ मेटता है गोरे-काले रंग के भेद को । पूर्ण चाँद प्रियाओं के कंठ में सौंदर्य का लोकगीत बनकर तरंगित हो उठता है जबकि रात गए सन्नाटे में झींगुर भी अपनी ड्यूटी से थककर सो चुका होता है नए कोलाहल के स्वप्न देखने के लिए ।

।। माँ ।।

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पृथ्वी छोड़कर माँ के जाने पर भी माँ बची रहती है संतान की देह में । संतान की देह माँ की पृथ्वी है माँ के देह त्यागने पर भी । माँ के जाने पर भी माँ बची रहती है प्राण बन कर । कठिन समय में शक्ति बनकर बची रहती है माँ । माँ के जाने पर भी बचपन की स्मृतियों में बची रहती है माँ । माँ अपने जाने पर भी बची रहती है अपनी संतानों में शुभकामनाएँ बन कर । माँ जाने पर भी कभी नहीं जाती है बच्चे बूढ़े हो जाएँ फिर भी ।

।। ईश्वर ।।

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दुःख में बचा है ईश्वर ईश्वर को खोजती हैं आँखें दुःख में अपनी आत्मा में खड़ा करती हैं ईश्वर दुःख के विरुद्ध बुद्ध बनकर ।

।। पुकारती है पुकार ।।

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अन्याय के विरुद्ध आत्मा चीखती है अक्सर पर, कोई नहीं सुनता सिवाय आत्मा के । झूठ के विरुद्ध आत्मा रोती है अक्सर पर, सिर्फ़ आँखें देखती हैं सच्चे आँसू । सच्चाई के लिए भूखी रहती है आत्मा प्रायः पर, कोई नहीं समझता है आत्मा की भूख । थककर अंततः उसकी आत्मा पुकारती है उसे ही अक्सर सिर्फ वही सुनती है अपनी चीख सिर्फ वही देखती है अपने आँसू सिर्फ वही समझती है अपनी भूख सिर्फ वही सुनती है अपनी गुहार और पुकारती है अपनी आत्मा को चुप हो जाने के लिए । वह जानती है क्योंकि सब एक किस्म के बहरे और अंधे हैं यहाँ वे नहीं सुनते हैं आत्मा की चीख वे नहीं देखते हैं आत्मा के आँसू ।

।। शब्द-बैकुंठ ।।

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बादल चुप होकर बरसते हैं मन-भीतर स्मृति की तरह । सुगंध मौन होकर चूमती है प्राण-अंतस साँसों की तरह । उमंग तितली-सा स्पर्श करती है मन को स्वप्न-स्मृति की तरह । विदेश प्रवास की कड़ी धूप में साथ रहती है प्रणय-परछाईं । सितारे अपने वक्ष में छुपाए रखते हैं प्रणय-रहस्य फिर भी आत्मा जानती है शब्दों के बैकुंठ में है प्रेम का अमृत ।

।। शब्दों के भीतर की आवाज़ ।।

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शब्दों से पुकारती हूँ तुम्हें तुम्हारे शब्द सुनते हैं मेरी गुहार । तुम्हारी हथेलियों से शब्द बनकर उतरी हुई हार्दिक संवेदनाएँ अवतरित होती हैं आहत वक्ष-भीतर अकेलेपन के विरुद्ध । बचपन में साध-साधकर सुलेख लिखी हुई कापियों के काग़ज़ से कभी नाव, कभी हवाई जहाज बनानेवाली ऊँगलियाँ लिखती हैं चिट्ठियाँ हवाई-यात्रा करते हुए शब्द विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को छूते हुए लिखते हैं संबंधों का इतिहास । तुम्हारे शब्द अंतरिक्ष के भीतर गोताखोरी करते हुए डूब जाते हैं मेरे भीतर ।

दो कविताएँ

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  ।। अपने ही अंदर ।। आदमी के भीतर होती है एक औरत और औरत के भीतर होता है एक आदमी । आदमी अपनी जिंदगी में जीता है कई औरतें और औरत ज़िंदगी भर जीती है अपने भीतर का आदमी । औरत अपने पाँव में चलती है अपने भीतरी आदमी की चाल बहुत चुपचाप । आदमी अपने भीतर की औरत को जीता है दूसरी औरतों में और औरत जीती है अपने भीतर के आदमी को अपने ही अंदर । ।। शंख ध्वनि ।। स्त्री शब्दों में जीती है प्रेम पुरुष देह में जीता है प्रेम स्त्री आँखों में जीती है रात और पुरुष रात में जीता है स्त्री । स्त्री शंख ध्वनि में जीती है आस्था के स्वर पुरुष शंख देह में भोगता है विश्वास-रंग ।

।। छुअन ।।

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प्रेम घुलता है द्रव्य की तरह पिघलता है राग-प्रार्थना में लिप्त जाती है आत्मा । मुँदी पलकों के भीतर प्रेम का ईश्वर जुड़े हाथों के भीतर हाथ जोड़े है प्रेम । प्रेम में बगैर संकेत के देह से परे हो जाती है देह । रेखा की तरह मिट जाती है देह और अनुभव होती है आत्मा की छुअन ।

।। हवा ।।

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हवाओं में होती है आवाज़ अपने समय को जगाने की । चुप रहने वालों के खिलाफ़ बवंडर उठाने की । हवाएँ चुपचाप ही आँधी बन जाती हैं । हवाएँ बिना शोर के तूफ़ान ले आती हैं । हवाएँ हमेशा पैदा करती हैं आवाज़ प्रकृति के पर्यावरण को हवाएँ पोंछती हैं अपनी अलौकिक हथेली से । हवाएँ गूँजती हैं धरती में जैसे देह में साँस ।

दो कविताएँ

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  ।। चिट्ठी के शब्द ।। चिट्ठी के शब्द पढ़ने से भ्रूण में बदल जाते हैं मन के गर्भ में । वे विश्वास की शक्ल में बदलने लगते हैं । शब्दों की देह में आशाओं की धूप समाने लगती है और अँधेरे के विरुद्ध कुछ शब्द खड़े होकर रात ठेलने लगते हैं । ।। कैनवास ।। बच्चे अपने सपनों की दीवार पर पाँव के तलवे बनाता है लावा के रंग में और उसी में सूरज उगाता है । आकाश उसका नीला नहीं पीला है सूरज उसके लिए पीला नहीं लाल है । पेड़ का रंग उसने हरा ही चुना है उसी में उसका मन भरा है । बच्चे ने सपनों के रंग बदल दिए हैं अपने कल के कैनवास के लिए ।

।। समय के विरुद्ध ।।

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रेत में चिड़िया की तरह उड़ने के लिए फड़फड़ाती । नदी में मोर की तरह नाचने के लिए छटपटाती । आकाश में मछली की तरह तैरने के लिए तड़पती । विरोधी समय में मनःस्थितियाँ जागती हुई जीती है अँधेरे में उजाले के शब्द के लिए । शब्द से फैलेगा उजाला अँधेरे समय के विरुद्ध ।

।। भीड़ के भीतर ।।

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पवन छूती है नदी और लहर हो जाती है । पवन डुबकी लगाती है समुद्र में और तूफ़ान हो जाती है । पवन साँसों में समाकर प्राण बन जाती है और देखने लगती है सबकुछ आँखों में आँखें डालकर और चलने लगती है भीड़ के भीतर ।

।। कथा ।।

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देखते-देखते सूख गया पेड़ देखते-देखते कट गया पेड़ कई टुकड़ों में जैसे चिता में जल जाती है मानव देह देखते-देखते । वृक्षों के नीचे की सूख गई धरती जड़ों को नहीं मिला धरती का दूध । हवा-धूप और बरसात के बावजूद वृक्ष नहीं जी सकता धरती के बिना । वृक्ष ! धरती का संरक्षक था जैसे सूनी हो गई है धरती पेड़ के बिना उठ गया है जैसे पर्यावरण का पहरुआ । घर के बाहर सदा बैठा घर का वयोवृद्ध सदस्य बिना पूछे अचानक जैसे छोड़ गया हमें वह देखता था हमें कंधों पर कबूतर करते थे उसके कलरव उसकी बाँहों में लटकती थी झरी बर्फ उसकी देह को भिगोती थी बरसात । ठंडी हवाओं को अपनी छाती पर रोककर बचाता था वह हमें और हमारा घर उसकी छाया जीती थी हमारी आँखें हम अकेले हो गए हैं जैसे हमारे भीतर से कुछ उठ गया हो । कटे वृक्ष की जगह आकाश ने भर दी है सूर्य किरणों ने वहाँ अपनी रेखाएँ खींच दी हैं धूप ने अपना ताप भर दिया है वहाँ । फिर भी एक पेड़ ने हमें छोड़कर न भरने वाली जगह खाली कर दी है ।

।। स्वाद के अभाव में ।।

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वह नहीं हँस पाती है अपनी हँसी ओंठ भूल गए हैं मुस्कराहट का सुख नहीं जागती है अब वैसी भूख स्वाद के अभाव में आँखें नहीं जानती हैं नींद सपने में भी रोती हैं काँप-सिहरकर एक पेड़ जैसे जीता है माटी के भीतर अपनी जड़ें फेंक कर जीने का सुख औरत नहीं जान पाती है वैसे ही एक नदी जैसे बहती है धरती के बीच औरत बहते हुए भी नहीं जान पाती है वह सुख ।