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'तुम हो मुझमें' का लोकार्पण

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नॉर्थ हॉलैंड के शहर लांगाडाईक के सिटी हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में वहाँ के मेयर हाँस कोरनीलिसा ने पुष्पिता अवस्थी के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'तुम हो मुझमें' का लोकार्पण किया । दिलचस्प संयोग यह है कि पुष्पिता अवस्थी ने नई दिल्ली के राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपना यह कविता संग्रह हाँस कोरनीलिसा को ही समर्पित किया है । इस आयोजन को लेकर तथा पुष्पिता जी की कविता को लेकर नी दरलैंड के कई अख़बारों में रिपोर्ट्स प्रकाशित हुईं हैं । ऐसी ही एक प्रकाशित रिपोर्ट की कतरन हमें मिली है, जो यहाँ प्रस्तुत है :  

।। स्मृति में … हिन्दुस्तानी माँ ।।

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मातृभूमि सरीखी माँ सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच टघरती हुई चलाती है अपना समय देश और परदेश के अपने घर और परिवार में ठियाँ के लिए गठरी सकेले उजारती रही अपने जाये बच्चों और रिश्तेदारों के दुआरी दुआरी और जान गई कि पिता के देह तजते ही दरक जाता है उसके अपने देह से तजा परिवार का घरौंदा भी बुढ़ापे के उत्तरार्ध में भी अपने जीवन के सारे प्रयोग करती हुई मृत्यु के विरुद्ध मृत्यु से लड़ती हुई थकी-हारी माँ ऋतुओं के बदलाव में याद करती है अपने जीवन का ऋतु चक्र धुँधली दृष्टि और झुर्राई देह में बरसात होने पर महसूस करती है बरखा का सुख  और भीग उठती है मातृभूमि की तरह स्मृतियों में थकी-हरी माँ बताती है अपनी जरूरत जैसे यह उनकी ही नहीं धरती की भी जरूरत है माँ में बोलती है मातृभूमि और मातृभूमि में बोलती है माँ जब उसकी ही जुती-जुताई धरती पर खेती करने की जगह लगता है कोई कारखाना अपने पोपले मुँह से चीखती है वह मशीन से भी अधिक तेज आवाज़ में जैसे उसकी छाती में भी हो विष्फोटक बग

।। गर्भस्थ माँ ।।

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इकली गर्भस्थ स्त्री सकेल लेना चाहती है अपनी साँसें गर्भस्थ शिशु के प्राण के लिए वियोग-संतप्ती अपनी माँ की साँसों से खींच रहा है साँस प्रणयी शिशु देह भीतर अपनी माँ की तरह सैनिक पिता की अनुपस्थिति की अनुभूति ही रक्त-पहचान गर्भस्थ शिशु की आँखों का अँधेरा आँसू में घोल रहा है इतिहास की काली स्याही माँ के एकाकीपन का तिमिर गर्भ-कोठरी में आकाश-गंगा का नक्षत्र प्रेम गंगा का सितारा अवतरित हुआ विरही माँ की देह में प्रणय का शिशु चाहत के गर्भ में सामुद्रिक दूरियों के बीच छटपटाती है हृदयाकुलता मछलियों सरीखी मँडराती रहती हैं आकांक्षाएँ तितलियों सी ह्रदय के रिक्त वक्ष-मध्य अकेली माँ और शिशु के भीतर एक साथ खुँटियाएँ शुष्क पौध और अरुआये काँटे सा धँसता है अकेलापन माँ और गर्भस्थ शिशु भीतर प्रिय की साँसों के साथ साँस लेना चाहती है गर्भस्थ स्त्री शिशु की साँस के लिए अपनी ही तरह से शिशु के पिता की आवाज को सुनकर धड़कना चाहता है माँ का ह्रदय शिशु के लिए कि वह युद्ध के चक्रव

।। मृत्यु से लड़ती है ।।

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माँ जीवन भर लड़ती है मृत्यु से मृत्यु सिर्फ देह की ही नहीं होती है बल्कि जब भूख       फसल       घर       जीवन       अपने आदमी       और बच्चों की हर जरूरत के लिए लड़ रही होती है माँ तब भी मृत्यु से लड़ रही होती है माँ माँ जीवन भर लड़ती है मृत्यु से ।

।। सीशिल ।।

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सीशिल धरती पर वृक्ष सरीखी अपनी जड़ें धँसाएँ हुए कैरेबियाई हस्तशिल्पी स्त्री का नाम है तराश से जन्म लेती है वृक्ष के शुष्क तने से न जाने कितनी काष्ठ सामग्री मनका और बाजूबन्द तक तने की तरह तनी हुई पर, रेशे-रेशे की मुलायम काष्ठाग्नि प्रज्वलित है उसकी जीवनोन्मुखी जिजीविषा की पर्तों में जंगल बीच वन की कला देवी सी अड़ी-खड़ी बरखा को पीती समुद्र के सौंदर्य की सरल हार्दिकता की संपत्ति को जीती वह जानती है ग्रीन हार्ट और महोगनी जैसे गठीले वृक्षों की जल विरोधी मजबूती की तरह पत्थर या लौह स्तम्भ की तरह जलधार बीच खड़ी सीशिल जानती है वृक्ष का वक्ष वक्ष के स्वप्न स्वप्न की आकांक्षा को सूखी लकड़ी की देह में जीती हुई सीशिल उकेरती है संसार की कलाओं का सौभाग्य-सुख ऋतुओं में कालिदास का ऋतुसंहार इंद्र का ऐंद्रिक जाल फाल्गुन का उन्माद जबकि ग्रीन-हार्ट सम्पूर्ण वृक्ष एक दिन में जीता है अपना पीताभी बसंत मानव देह में प्रवेश की हुई मृतात्मा की छाया को अपनी आँखों से डसती हुई साँसों से झाड़ फ

।। जंगल जग के मानव प्राणी ।।

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अमर इन्डियन के गाँव सघन घन बीच पथ और पगडंडियों से परे विमान ही पहुँचने का एकमात्र माध्यम जहाँ और दृष्टि ही पथिक नदियाँ हैं जंगल का रास्ता और जंगल देते हैं नदियों को रास्ता वृक्षों की देह से बनी लम्बूतरी डोंगी ही गाँव से गाँव जंगल से जंगल तट से द्धीप की दूरी का वाहन जलवाहन ही केवल साधन सघन घन बीच मछली-सी बिछलती तैरती जंगली मानसूनी पानी पीकर जीवन जीती नदियों में अपने जीवन की कटिया डाले हुए जीती हैं वन जातियाँ अमर इन्डियन परिवारों में परिवार कबीलों में और कबीलों के लोग जंगलों में तीर-धनुष और भालों से करते हैं शिकार वृक्षों के तनों के ऊपर से शुरू करते हैं अपने काष्ठ-घर और विह्वर मंकी (बुनकर वानर) की तरह बुनते हैं अपना हैमक पालना वृक्षों के वक्ष-बीच तना झूलता उन्हीं के पाँव पर खड़े हैं अमर इन्डियन के बसेरे लकड़ी के पटरों और लट्ठों से बने हैं घरों के घोंसले चार फुट की ऊँचाई से शुरू होते हैं अमर इन्डियन के वन-जीवी घर तासी पत्तियों की छत ओढ़े हुए कपासी सूत के हथ बने पालनों

।। इकली स्त्री ।।

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घर पर छोड़ आती है अकेलापन जिसे जीती है वह और जो जीता है उसे आमने सामने होने पर अकेलापन घर में रहता है उसके साथ पहने हुए कपड़े की तरह मन देह के अंतस का एकांत ढाँपने के लिए अवकाश के दिन घर के भीतर देखता है उसका अकेलापन और सहलाता है उसे सोयी हुई अपनी मुलायम साँसों से अकेलापन घर-भीतर छिपा बैठा है उसके हर सामान में एक उदास ठंडक की तरह आईना तक ओढ़े रहता है अनुपस्थिति की स्याह चादर समय का मौन समाया है घर के सन्नाटे में अकेलेपन ने ऊब कर घर के भीतर और बाहर उढ़ा दी है उपेक्षा की श्वेत चादर पूरे घर में फैली रहती है मौत की परछाईं और अकेलेपन की कसक जो घर का ताला खुलते ही उझक कर आ गिरती है अकेली स्त्री की सूनी हथेली बीच जिसे सहेज कर रखती है अपनी मुट्ठी में घर के अकेलेपन को कम करने के लिए जो उस इकली स्त्री से भी ज्यादा झेलता है घुटन उसके काम पर जाने के बाद घर और स्त्री दोनों पहचानते हैं एक दूसरे का अकेलापन और दमतोड़ कोशिश करते हैं उसे कम करने की एक दूसरे के आमने-सामने होने पर स्त्री-पुरुष की तरह प्रायः   

फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में

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पुष्पिता अवस्थी जी को पिछले माह आयोजित फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था । यहाँ पुष्पिता जी ने आमंत्रितों के समक्ष अपनी कविताएँ तो सुनाई हीं, साथ ही बुक फेयर की अन्य गतिविधियों का भी जायेजा लिया । आयोजन से संबंधित कुछेक डिटेल्स और दो तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं :