।। सोचती हूँ तुम्हें ।।
ओंठ, पुकारते हैं तुम्हें आँखें, अपने भीतर देखती हैं तुम्हें साँसों में होती है अब तुम्हारी ही सुगंध आवाज़ में तुम्हारे ही शब्द वेदों में दिखती है तुम्हारी ही दृष्टि गीता का संगीत तुम्हारे ही जीवन-कर्म में तुम उपस्थित होते हो मेरे भीतर जब भी मैं सोचती हूँ तुम्हें जीने के लिए जीने के क्षणों में