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'शब्दों में रहती है वह' का उल्लेख

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वरिष्ठ समीक्षक ओम निश्चल ने इस वर्ष प्रकाशित पुस्तकों के परिदृश्य का जायेजा लेते हुए  'बची हुई है अभी शब्द की महिमा' शीर्षक से एक विस्तृत आलेख लिखा है,  जिसे 'समालोचन' ब्लॉग पर पढ़ा जा सकता है ।   इस आलेख में पुष्पिता अवस्थी के इस वर्ष प्रकाशित कविता संग्रह  'शब्दों में रहती है वह' का भी उल्लेख हुआ है ।   उस उल्लेख को इस स्नेप शॉट चित्र में देखा/पढ़ा जा सकता है :

।। प्रणय-पृथ्वी ।।

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प्यार देह-भीतर रचता है प्रणय-पृथ्वी खुलती है देह जैसे    डार प्रेम की आँखें खेलती हैं देह के पर्वतों से हथेलियाँ बनाती हैं अक्षय प्रणय घरौंदे देह की रेत से प्रणय-उँगलियाँ सिद्ध करती हैं प्रेम-हठयोग साधना से सधता है ब्रह्मानंद-नाद अपने अंतरंग के कैलाश-शिखर पर साधनारत शिव की तरह समाधिस्त है प्रणय प्रिय की अन्तश्चेतना में प्रिय के लिए ।

।। मन-माटी ।।

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प्रेम धरती के अनोखे पुष्प-वृक्ष की तरह खिला है तुम्हारे भीतर अधर चुनना चाहते हैं वक्ष धरा पर खिले पुष्प को जिसमें तुम्हारी मन-माटी की सुगंध है अद्भुत । तुम्हारे ओंठों के तट से पीना चाहती हूँ प्रेम-अमृत-जल शताब्दियों से उठी हुई प्यार की प्यास बुझाने के लिए ।

।। प्रकाश-सूर्य ।।

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मौन प्रणय लिखता है शब्द एकात्म मन-अर्थ मुँदी पलकों के एकांत में होते हैं स्मरणीय स्वप्न प्रेम उर-अन्तस में पिरोता है स्मृतियाँ           स्मृतियों में राग;           राग में अनुराग;           अनुराग में शब्द;           शब्द में अर्थ;           अर्थ में जीवन;           जीवन में प्रेम;           प्रेम में स्वप्न; प्रणय-रचाव-शब्दों में होता है सिर्फ प्रेम जैसे सूर्य में सिर्फ प्रकाश और ताप ।

।। कुछ खामोश शब्द ।।

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लिफाफे की तरह खोलती है शब्द और शब्दों को खोलती है मन की तरह तुम्हारे ही शब्दों में रखती है मन-बसी तुम्हारी ही छवि और उस रूप के अधरों पर रखती है तुम्हारे शब्द-रूप और सुनती है शब्दों की छुपी साँसों की आहटें लहरों की तरह एक-पर-एक लगातार आती हैं जो तुम्हारे ही शब्दों को तुम्हारी ही आँखों में रखकर पढ़ती है मौन मेरी आँखें नम-मन-गंगा में नहाकर भीग उठते हैं तुम्हारे ही शब्द तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरी आँखों के सामने आँखों के बीच होते हैं कुछ खामोश शब्द संबंधों की नई व्याख्या के लिए शब्द-नक्षत्र-कोष तुम्हारे शब्दों को अपनी साँसों में सहेजकर रखती हूँ मन-घर में तुम्हारे अपने नाम-घर में चुपचाप मेरी साँसों की हवाओं के अलावा कोई मन-वसन्त नहीं सूँघता साँसों के सपनों का वसन्त हैं  तुम्हारे शब्द नीली स्याही में है तुम्हारे मन की गंगा (नीलकंठी विष को अपने शब्दों में घोलकर गंगा-अमृत बनाया है) तुम्हारे मन का आकाश । नीले शब्दों की नीली लहर में

।। अभिलाषा ।।

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अभिलाषाएँ … चुप … तिरती और तैरती हैं कभी संवेदनाओं की झील में कभी विचारों की नदी में प्रकृति से ग्रहण करती हैं इच्छाएँ कभी सजलता        तरलता        सजगता अभिलाषाएँ … चुप … रहती हैं अपने को शब्द में रूपान्तरण से पहले प्रेम में प्रेम की तरह ।

।। प्रणय-वक्ष ।।

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आँखें साधती हैं एकनिष्ठ प्रणय-गर्भ में संवेदनाएँ प्रणय-ऋषि-कानन रचती हैं अनुभूतियाँ दुष्यंत और शकुन्तला सरीखे प्रणय-नव-उत्सर्ग गंदर्भ-विवाह का आत्मिक संसर्ग प्रेम के लिए अपना प्राण सौंपता तुम्हारा प्रणय-वक्ष स्वर्ग का एक कोना जहाँ प्यार के लिए सर्वस्व - समर्पण ।

।। छूट गई है खिली हुई ऋतु ।।

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तुम्हारी आँखें छूट गई हैं मेरी आँखों में शब्द मेरे मौन में तुम्हारी हुई साँसों के घर में बसेरा कर रही हैं मेरी साँसें होंठ बने हैं मेरी चाहतों के संकल्प तुम्हारे स्पर्श में छूट गई है खिली हुई ऋतु पनपा है जिससे तुम्हारी अंतरभूमि में उपजा प्रणय-वृक्ष का अद्भुत बीज मन-पड़ाव का आधार एकांत का सखा-सहचर स्मृतियों में बसी-रची छूती हुई तुम्हारी परछाईं हर क्षण छूती-पकड़ती है पूर्णिमा की चाँदनी की तरह फूलों की सुगंध की तरह अलाव के ताप की तरह तुम्हारा मन-स्वाद छूट गया है मेरे आह्लाद कक्ष में महुए की तरह बची हुई पीताभा-सुगंध सेमल की तरह मुलायम होकर मन ने रचा है एक रेशमी-कोना जिसमें लिखा है सिर्फ तुम्हारा ही नाम मेरे अपने भविष्य के लिए जो तुम्हारी हथेलियों में बसी रेखाओं की तरह है तुम्हारी हथेली की रेखाओं की पगडंडी में चलती हैं मेरी हथेली की रेखाएँ वे एक हो जाती हैं मन की तरह खुशी के मौकों पर मेरी हथेली खोजती है तुम्हारी हथेली सुख की ताली के लिए

।। कभी मेघबूँद ।।

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नदी के द्धीप वक्ष पर लहरें लिख जाती हैं नदी की हृदयाकांक्षा जैसे - मैं सागर के रेतीले तट पर भँवरें लिख जाती हैं सागर के स्वप्न भँवर जैसे - तुम पृथ्वी के सूने वक्ष पर कभी ओस कभी मेघबूँद लिख जाती है तृषा-तृप्ति की अनुपम गाथा जैसे - मैं ।

।। मन का ऋतुराज ।।

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आकाश के नील पत्र पर धूप-स्याही से हवाओं ने 'वसन्त' शब्द लिखा मेरे मन का 'ऋतुराज' तुम्हारी घड़ी में अपना समय देखता है तुम्हारे शब्दों में अपने लिए संकल्प तुम्हारी नींद में अपने लिए स्वप्न तुम्हारे लिखे में से अपने लिए शब्द आत्मीय शब्द तुम मेरी कलाई में घड़ी की तरह बँधे हो तुम्हारी घड़ी में है मेरा चंचल दिन ठहरी-ठिठकी रात तुम्हारी घड़ी-सुइयों में प्रतीक्षारत है मेरा समय ।

।। उन्मुक्त व्यथा ।।

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तिथियों के गुँजलक में होता है तुम्हारा प्रवास मेरा वियोग पर उन्मुक्त है व्यथा सूरज नहीं जला पाता ताप चाँद नहीं पी पाता व्यथा-विष सारी रात सौरमंडल निरखता है आँसू फिर भी सितारे नहीं बाँट पाते हैं व्यथा-सन्ताप तिथियों के अंकों में खुली होती है स्नेह-सींजी गोद तुम्हारे आगमन-तिथि में होती है तुम्हारी आँखें          तुम्हारे अधर मेरा सन्ताप लेने के लिए अपना सन्ताप देने के लिए फिर अगली प्रतीक्षा के लिए तुम्हारे आगमन की तिथि-सीप भीतर होता है तुम्हारा नेह-तप-मोती जिसे तपकर लाते हो तुम स्नेह-हार के लिए ।

।। मन के अन्तःपुर का पाहुन है प्रेम ।।

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प्रेम मात्र शब्द है जिनके लिए वे कथा की तरह पढ़ते हैं देखते और जीते हैं नाट्य-नौटंकी की तरह और खाली समय में खेलते हैं बचपन के सारे खेल छूटने के बाद । प्रेम जिनके लिए स्पर्श है वे छूते हैं आँखों से प्रणय का तन और मन वे सुनते हैं कानों से प्रणय की झंकृति वे सूँघते हैं साँसों से प्रणय की साँस और जान वे स्पर्श करते हैं प्रणय-गात जैसे अभिषेक के लिए ललाट आशीषाकांक्षा से चरण और पाते हैं प्रणय की चरितार्थता । प्रेम शब्दों से परे है शब्दकोशों से बहिष्कृत मन के अन्तःपुर का पाहुन है वह केवल ह्रदय से हार्दिकता से काम्य ।

।। विश्रांति ।।

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सरसोईं सींजी साँझ में देख रही थी तुम्हारे हाथों में जैसे कि हृदय की हथेली में विश्राम से बैठी अपनी हथेली के चैन को और रेखाओं की आँखों में उड़ते रेशमी रंगीन भविष्यत् स्वप्न को सन्नाटे की निःशब्द गूँज में भविष्य के लिए मचलते आतुर शब्द रचते हैं पूरा वाक्-संसार संबंधों की संवेदनाओं का सारे भेद अस्तित्वहीन होकर तिरोहित हो जाते हैं अनपहचाने अजनबी शब्द सहमते और सिसकते हैं । तुम्हारे स्पर्श के आत्मीय मौन में कि जैसे रंग-डूबी तूलिका ने रेखाओं की लिपि में उकेरा हो  अबूझ कुछ देहांश के एक कोने में उस क्षण कोपल-सी कोमल हो आई थी अनुभूति जल-सी तरल रिस आई थी संवेदना काँच-सा पारदर्शी था स्पंदन जिसमें प्रतिबिम्बित थी तुम्हारी आत्मा …आत्मा का प्रेम प्रेम का सर्वस्व समर्पण जैसे भीतर के मरुस्थल में दबा पड़ा कोई बीज अपनी पहचान बनाता अंकुरित हो आया हो स्नेह-स्पर्श से सार्थक हो आई काया ने एक नाम दिया था उस क्षण हथेलियों में उपला आई गहरी आत्मीय अनाम आस्था को जैसे गाँव की अबोध स्त्री

।। अघोषित घोषणा-पत्र ।।

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गहरा अकेलापन जीने के बाद पोछ आई हूँ काजल तुम्हारी तौलिया में वियोग सन्ताप के करुण चिन्ह भीगे आँसुओं की आर्द्रता प्यार की नमी करवटों की सघन चुप्पी-बाद रोप आई हूँ कुछ सिलवटें तुम्हारी चादर में बेचैनी के रेखाचित्र स्पर्श की आकुल-व्याकुल भाषा-लिपि प्यार की ऊष्मा मौन एकटक निहार बाद लीप आई हूँ अपनी अदृश्य कसमसाती कसक तुम्हारे आदमकद आईने में आत्मीयता की ऊष्मा में पगी नरम अमिट साँसें देह-चन्दन-रज प्यार के क्रिस्टल तुम्हारे कमरे की हवाओं में घोल आई हूँ एकाकीपन से तपी अपनी उतप्त साँसें जो लिखती ही रहती हैं पल-प्रतिपल प्राण-पट्ट पर प्रणय का अघोषित घोषणा-पत्र ।