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दिसंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। नीदरलैंड समुद्रतट ।।

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नार्थ-सी पुत्र नीदरलैंड ऋतु के ग्रीष्म होने पर सूर्य-बिंब में बन जाता है दर्पण स्वयं देखता है प्रतिबिंब अंतरिक्ष अपना सर्वांग । रेत की रेती में उतरता है सूरज बच्चों के तलवों में सूर्य-शक्ति भरने के लिए और शीश-भीतर अंतरिक्ष का कौतुहली ज्ञान । मछली की तरह सागर प्रिय जन मन की देह को सेंकता है सूर्य और प्रक्षालित करता है सागर पयोधरों को बनाता है स्वर्ण-कलश । वेद की ऋचाओं से बाहर ही सूर्य स्नान करता है नार्थ-सी के जल में । वेदों के ज्ञान से अज्ञान प्रकृति के नैसर्गिक प्रेमी पृथ्वी की शांति में जीते हैं आत्म-शांति । छूट रहे रिश्तों में खो रहा है अपनापन प्रणय अन्वेषी जन नई परिभाषाओं के साथ जन्म देना चाहते हैं नया प्रेम । रिश्तों से ऊबे हुए फिर भी रिश्तों के लिए प्यासे घर से थके हुए रेतीले घरौंदों के खेल में घर को जीते हुए लोग नीले आकाश तले बुझाते हैं अपनी प्यास और आँखों से पीते हैं अछोर समुद्र की गति का छोर ।

।। योरस ।।

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योरस अपनी अविवाहित माँ मरियम के चेहरे के पीछे छिपाए हैं अपने पिता अलेक्सेंडर का प्यार और प्यार करना चाहते हैं दुनिया को दुनिया की गोद में जाकर । योरस के चेहरे पर उतरे हैं अपनी माँ के नयन-नक्श जिसके भीतर से बोलता है पिता का विश्वास । योरस हँसते हैं रसीली हँसी अपनी छह दँतुलियों के भीतर दुनिया की खुशी के लिए कि धुआँई जग से थकी ऊबी आँखें सीखे जीना बच्चों की खुशी के लिए । दो वर्षीय योरस देखना चाहते हैं दोनों गोलार्द्धों को अपनी नन्हीं ललाई मुट्ठी में कि आणविक युद्ध की आग से अधिक ताकत है मुट्ठी की लालिमा में अपना बनाने के लिए । नीली आँखों में समेटे हैं अपनी मातृभूमि हालैंड की दीर्घजीवी शांति शांति-दूत कपोत का संदेश संस्पर्श करता है मौन । चलने में असमर्थ पर, बैठे ही बैठे घिसटकर पहुँच जाना चाहते हैं हर उस चाहत के पास जो चाहती है उन्हीं की तरह । योरस से आती है मानव-शिशु होने की अलौकिक सुगंध कि परफ्यूम्ड सुगंध के मिलते ही चिहुँककर पलट लेते हैं नाक मसलते नहीं भूल

।। छोर से परे ।।

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                                समुद्र के निनाद में है बच्चों की ध्वनि तरंग प्रतिध्वनित लहरें जैसे कि उनके ही उठे हुए हाथ और बच्चों में होता है समुद्र का अछोर कोलाहल आकुल और व्याकुल माँ के आँचल के भी छोर से परे ।

।। अंतर्ध्वनि ।।

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औरत चुप रही दुनिया बोलती रही । ऐसे ही एक सदी बीत गई । औरत सुनती रही है दुनिया के खोखले और डरावने शब्द । बच्चे जिन्हें मुखौटा कहते हैं ।

।। इफोन ।।

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इफोन सबके लिए एक स्त्री का नाम है वह सिर्फ ख़ुशी का प्रतीक है । स्विट्जरलैंड, इटली, आस्ट्रिया की मिलन भूमि 'नाउदर्स' के एक होटल की स्वागत रमणी है मालिक के लिए आगंतुकों के लिए । उत्साहपूर्ण सेवातुर । 'प्लोनर' होटल मालिक तीन कन्याओं के पिता ने नहीं पहचाना इफोन के भीतर का बेटी मन । पल्लव-सी स्वयं फूलों-सा सजाकर रखती है खुद को पर तितली की तरह बैठ जाना चाहती है हर अतिथि के पर्यटकी मन पर । अपनी आँखों की खुशी में सोख लेना चाहती है वह अतिथियों की थकान । पक्षियों की तरह यायावरों के कंधों पर बैठकर घूम आना चाहती है देश-विदेश । संचार-युग में तस्वीर खिंचवाने में सहमती-सकुचती इफोन स्वयं अपनी माँ की एक सुंदरतम तस्वीर है होटल के फ्रेम में जड़ी हुई । भविष्य की प्रतीक्षा में जीती लेकिन, भविष्य से डरती अपनी हथेलियों को बंद रखती है अक्सर जब से उसने जाना है कि मुट्ठी में रहता है भविष्य । आस्ट्रिया के लिबास नाउदर्स गाँव की संस्कृति के प्रति उसके भीतर है खूबसू

।। अपनों की याद में ।।

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(एक) विदेश-प्रवास में तपन और पाले में एकाकी पड़ा है मेरे मन का चबूतरा जैसे हवा में किसी स्मृति-घाव का गीला निशान । इच्छाओं के नाव-घर से ढूँढ़ती हैं बूढ़ी आँखें बीते कल उजले अतीत । प्रिय की स्मृति में अपनी ही अंजुलि में अपना चेहरा टिकाए कि मेरी हथेलियाँ उसकी ही हथेली हो बैठी हैं स्वदेशी इच्छाएँ आत्मसुख के लिए । (दो) बेआबरू मौसमों की तरह पड़े हैं सपने आँखों के कोने में एकाकी परदेश प्रवास में सूरज की सेंक में सुलगते हैं स्वप्न जिंदगी फिर भी रचती रहती है नए नए ख्वाब विदेशी मित्रों की तरह । विदेश में याद आती हैं सहमी हुई स्मृतियाँ चाँदनी से भी झरता रहता है अँधेरा पूर्णिमा की पूरी रात अकेले में 'उदास' शब्द के गहरे अर्थ की तरह । इच्छाएँ माँगती रहीं नए पत्ते जहाँ साँस ले सके इच्छाएँ और उनसे जन्म ले सकें अन्य नवीनतम इच्छाएँ । इच्छाओं के साँचे में समा जाती हैं जब भी इच्छाएँ जिंदगी हो जाती है जिंदगी के करीब जैसे कागज के आगोश में होती है कलम कुछ

।। हथियार ।।

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कविता को रचना है हथियार सारे हथियारों के विरुद्ध अपनी भाषा में । बिना युद्ध किए जीतने हैं सभी युद्ध आज की सभी भाषाओँ को । धर्म के भीतर बचाना है धर्म बिना ईश्वर के ।  सारे धर्मों से बाहर निकालना है धर्म को ईश्वर नहीं आदमी के पक्ष में कविता को अपनी भाषा में फिर वह कोई भी भाषा हो … ।

।। नाम ।।

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विदेश-प्रवास में हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं हेमचंद्र के शब्दानुशासन से परे पाणिनी के अष्टाध्यायी के व्याकरण से दूर शब्दकोश से परे आखिर मैं और तुम शब्द ही तो हैं । शब्द में साँस लेती धड़कनें नवातुर अर्थ के लिए आकुल सघन-घन कोश में आँखें पलटती हैं मेघों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ कभी फूलों के पन्नों को उलट-उलट सूँघती हैं सुगंध का रहस्य कभी सूरीनाम और कमोबेना नदियों से पूछती है अनथक प्रवाह का अनजाना रहस्य हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं अधीर और व्याकुल अंतःकारण के वासी नाम शब्द की तरह ओठों की मुलायम जमीन पर खेलते हैं स्नेह-पोरों से पलते हुए बढ़ते हैं शब्द समय में समय का हिस्सा बन जाने के लिए अंश में अंशी की तरह रहते हैं शब्द जैसे विदेश में समाया रहता है स्वदेश जैसे मुझमें बसा रहता है तुम्हारा जीवन बोध ।

।। दूब ।।

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दूब की कोमल नोकें चलते हुए पाँव में लिखती हैं अपने छोटी होने की बड़ी कहानी । पाँव ने रची हैं पगडंडियाँ पगडंडियाँ पकड़कर पाँव पहुँचते हैं रास्ते तक चलते हुए पाँव बतियाते हैं रास्तों से बिछी हुई दूब पूछती है तलवों का हाल और पोंछती है माटी । दूब की हरी नोक की कलम तलवों की स्लेट पर लिखती हैं माटी के तन भीतर हरियाला मन । उड़ते हुए पक्षी की परछाईं से खेलती है दूब रात-दिन धूप थककर विश्राम करती है दूब की सेज पर । चाँदनी करती है रुपहला श्रृंगार और ओस बुझाती है दूब की प्यास थके हुए पाँव को देती है विश्राम बेघरों को देती है घर का रास्ता और भटके हुओं को पथ और रात का बसेरा दूब अनाथ बच्चों का है पालना और खेल का मैदान । दूब पृथ्वी पर जहाँ भी उगी है जमी है और चलते हुए पाँव में लिखती है अपने छोटे होने की बड़ी कहानी ।

।। कवि श्रीनिवासी ।।

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श्रीनिवासी कवि ने अपनी जन्मभूमि में कलम-हल से बोए हैं शब्द बीज । सूरीनाम को जिलाया है अपनी कविता में अपना खून देकर । सूरीनाम धरती पर बूढ़ा हो रहा है सूरीनाम पचासी वर्ष के होने पर भी अपनी कविता में है जवान कंधे पर हल लिए हुए किसान की तरह । न्यू एम्स्टर्डम के नदी तट पर कविता का आकाशदीप लिए हुए खड़ा है कवि जिसकी तस्वीर की सजल आँखों में बची है स्याही अपनी नई कविता के लिए । न्यू एम्स्टर्डम के जंगल होते हुए तट पर शताब्दियों का दुःख जीते-जानते वृक्षों की तरह खड़ी है कवि की कविता । जिस तरह शाखाओं पर पक्षियों ने बसाए हैं नए पौधे … नई लताएँ … नई जटाएँ और नए घोंसले । कवि की कविता की तरह । किसी ज़माने में इसी तट पर  मातृभूमि के पक्ष में माँ की तरह लड़ती हुई तोपें आज चुप पड़ी हैं अपनी ही संतानों के कंधे पर सिर टिकाए हुए । तट के पुलिस थाने की चौखट पर पहरेदार की तरह तैनात खड़ी है श्रीनिवासी की कविता हथियार की तरह मातृभूमि के पक्ष में । कविता ही न्यू एम्स्टर्डम

।। हनिका ।।

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एक यूरोपीय स्त्री के भारतीय मन-तन का नाम है हनिका । नाम से डच पर पहचान में इतर । निष्पलक खुली आँखों सुनते हुए देखती है सर्वस्व बहुत चुपचाप निश्छल नदी की तरह । हर एक उसकी आँखों में देखता है अपना प्रतिबिम्ब वह चौंकती नहीं है किसी के आने-जाने से । उसके कान देखते हुए सुनते हैं सब कुछ जैसे उसकी आँखें सुनती हुई देखती हैं अहर्निश सोचती है अक्सर आँख न चाहते हुए भी सब कुछ देखने को विवश कान न चाहते हुए भी सब कुछ सुनने को विवश अगर ऐसे ही होते अधर और बोलते रहते आत्मा की वाणी अनवरत तो सृष्टि का होता दूसरा स्वरूप । दुनिया इतनी डरावनी नहीं होती तब हर हालत में लोग नहीं रहते असुरक्षित । सत्ता और भय की शक्ल हथियार में नहीं बदलती । आजादी का दूसरा नाम आतंक नहीं होता । ताला और पहरा सुरक्षा का पर्याय नहीं बनते । औरत और आदमी के बीच जन्मती विश्वास की संतानें परिवार का हर सदस्य देह का अंग होता । देश-दर-देश में घूमती उसकी आँखें पृथ्वी की तरह घूम रही हैं चुपचाप । प्रिय का हाथ थामे परियों की

।। कवि माइकल स्लोरी ।।

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माइकल स्लोरी सूरीनाम की धरती का चलता फिरता मानव-बॉक्साइट जिसके शब्द स्वर्णगर्भी धरती के भूगर्भ से निकले खरा सोना । बॉक्साइट और सोने की तरह खरे हैं माइकल स्लोरी भूमध्यरेखीय सूर्य-ताप की स्वर्ण-सुरा को घुमंतु माइकल की खोपड़ी पीती  है दिन-दोपहरी । वर्षाधिक प्राचीन धूप से झुलसते वृक्षों की छाया तले नहीं सुस्ताते हैं माइकल शब्द उन्हें चलाते रहते हैं शब्द-सखा सहचर हैं माइकल स्लोरी । चिड़ियों की ध्वनि-गूँज से अपनी कविता के रचते हैं शब्द कभी जिसमें मन-भीतर की चीख कभी अंतस का उल्लास खदानी मजदूरों की तरह लातीन अमेरिकी उपमहाद्धीप के बहुदेशीय मानव-मन की खदानों से खनते हैं अपनी कविताएँ । देश के डच भाषी अख़बार में प्रति सप्ताह होता है उनके मन की आँखों का जीवंत दस्तावेज । पाँवचारी करते हुए माइकल जोड़े रखते हैं अपनी देह-माटी को सूरीनाम की सबानाई माटी से । अंतर्दृष्टि की जड़ें फेंक धरती पर उगाए रखना चाहते हैं मानवीय मूल्यों के लिए मानव-वृक्ष सूरीनामी जनजीव

।। बच्चों के सपनों के लिए ।।

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बच्चों के बड़े होते ही खिलौने छोटे हो जाते हैं माँ खिलौनों को सहेज-सहेज रखती है बच्चों के विदेश जाने पर उनके छूटे हुए बचपन को फिर-फिर छूने की अभिलाषा में । बच्चे जान जाते हैं जैसे ही खिलौनों के खेल में छुपे जीवन के झूठ को घर-बाहर हो जाते हैं जीवन के सच की तलाश में । माँ ढूँढ़ती रहती है खिलौनों में छिपी उनकी ऊँगलियों को अपने बच्चों के मुँह में लगाए गए खिलौने को चूमती है विदेश पढ़ने गए बच्चे के बिछोह को भूलने के लिए । खिलौनों में बची हुई बच्चों की स्मृतियों को छू-छू कर वह कम करती है अपनी स्मृतियों की पीड़ा अपनी यादों में रखती है वह अपने बच्चों के खिलौने यह सोचकर कि आखिर उसकी ही तरह खिलौने भी याद करते हैं उसके बच्चों को । पुरानी तिपहिया साइकिल को भी कभी खड़ा कर देती है सूने बगीचे में और याद करती है बच्चों के पाँव जो अब मिलिट्री की परेड में हैं या वायुयान की उड़ान में या अपने देश की सुरक्षा में या देशवासियों की सेवा में । अभी भी बचपन में गाई गई तुलसी क

।। डॉलफिन ।।

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डॉलफिन सामुद्री ममता की प्रतीक सागर की ह्रदय बनी हुई धड़कती रहती है लहरों के बीच लहर बन कर । ऋषि समुद्र की संतान सागर-मेधा-डॉलफिन सागर की मेधस्वी नागरिक न्यूजीलैंड, उत्तरी अमेरिका, कैरेबियाई सागर दक्षिण अमेरिका और अर्जेंटाइनी तट पर समुद्र की लहरों को चुनौती देती हुई लहरों की बाधक दौड़ से निर्बाध खेलती रात-दिन कभी पानी के भीतर कभी पानी के ऊपर । समुद्र की स्मृतियों का घर है डॉलफिन के भीतर जलजीवों की सहचरा मनुष्यों की भेंट पर करती है मानवोचित आचरण चूमती है हाथ और ओंठ खेलती है बच्चों की तरह । समुद्र और पृथ्वी का भेद मिटाकर लौटती है रेत-तट पर और अपनी खिलखिलाहट में उद्घोष करती है सार्वभौमिक आनंद का रहस्य । समुद्र के भीतर है सृष्टि की प्रकृति प्रकृति की छटा मनमोहक जल ही जहाँ का पवन है और जीवन भी । पञ्च तत्वों ने रचा है समुद्र भीतर समुद्री पृथ्वी जीवंत आलोक से भरपूर जहाँ मछलियाँ तैरने से अधिक उड़ती हैं तितलियों सी जिनका रंग सपनों की तरह

।। गठीले हाथ ।।

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वे हमारी खुशियों को रचाने में शामिल हैं जिन्हें हम नहीं जानते हैं पर वे पहचानते हैं अपने से अधिक हमारी खुशियाँ खुशियों का स्वाद रंग-रूप और चाल-गति । उनके हाथों से रचा जाता है सुख का संसार हम सिर्फ खरीदते हैं जिसे । बड़े लोग मानते हैं रुपया खुशी है छोटे लोग जानते हैं मेहनत मजूरी । नया साल आने से पहले फड़फड़ाने लगता है कागजों का सफ़ेद सीना मशीनों के नीचे और उनके पीछे मेहनत-मजदूरी वाले गठीले हाथ जहाँ बदलती हैं तारीखें और सपने भी । कम्प्यूटर की बटन करती है अग्रिम बुकिंग नए साल में नए देश में नए होटल में.… । समय भी जागता है जैसे तब अपनी करवट में अंक बदलता है तीन सौ पैंसठ दिन जैसे पहनने के लिए वस्त्र हों । समय देखता है जागकर नए वर्ष का चश्मा लगाकर और हम नए ढंग से सोने के उपाय बाद सो चुके होते हैं पटाखों के शोर और शराब के स्वाद बाद देर रात सो चुकने के बाद देर दोपहर जागते हैं लोग । जबकि घर में न समाने वाले छोटे बच्चे घर-बाहर बीन चुके होते हैं छूटे हुए पटाखों