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अगस्त, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। अनुपस्थिति के घर में ।।

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तुम्हारी अनुपस्थिति के दुःख से जाना तुम्हारी उपस्थिति का सुख तुम्हारी अनुपस्थिति में बनता है मेरे भीतर सूनेपन का एकांत अकेलापन अपने प्रवास के कारण अतिथि नहीं रहता है डर दिशाओं का अँधेरा समेटकर गठरी बनाकर सिरहाने रखकर सुस्ताता है लोकव्यथा के शब्द बुदबुदाता सन्नाटे का भयानक शोर हदस की धुंध बनकर घुस आता है आँखों में अनुपस्थिति का सिर्फ कसैला कोहरा होता है जिसमें डर का घर नहीं दिखता है पर डर का घर होता है जिसमें घुटन बसती है तुम्हारी अनुपस्थिति में मन की पृथ्वी पर कोई सृष्टि नहीं होती है दृष्टि में सिर्फ पक्षियों की फड़फड़ाहट नदी का दुःख पेड़ का मौन सागर की बेचैनी तूफान की आग ऋतुएँ के मन की बंजर होने की खबर सिर्फ फैली-उड़ती दिखती हैं तुम्हारे जाने के बाद सुख में तब्दील हवा की हथेलियों के झोंके की अंजुलि में भरकर पहुँच जाना चाहती हूँ तुम्हारी साँसों में एक ऋतु के रूप में आकार लेकर एक ऋतु की तरह फैल जाना चाहती हूँ तुम्ह

।। छाई है परछाईं ।।

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ईश्वर के प्रेम की छाया है तुम्हारी आत्मा में ईश्वर अंश है तुम्हारा चित्त तुम्हारे प्रेम में मैं 'प्रेम' का ईश्वर देखती हूँ तुम्हें छू कर मैं प्रेम का ईश्वर छूती हूँ तुम्हारे कारण पत्थर के भीतर का विश्वास-ईश्वर देख पाती हूँ तुम्हारे कारण पाषाण में बचा है ईश्वर शब्दों में तुमने रचा है ईश्वर कि वह दिखाई देता है आँखों में और गूँजता है प्राण-साँसों में तुमने धर्म में बचाया है ईश्वर क्योंकि तुमने हाँ … तुम्हारे अस्तित्व में है ईश्वर … इसीलिए तुममें है ईश्वर का प्रेम ईश्वरीय प्रेम पवित्र पारदर्शी वह अक्षय स्रोत ।

।। अधरों पर झरी हुई हँसी की स्मृति में ।।

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तुम्हारी आँखों के सामने मेरा उदास अँधेरा होगा काई ढके मौत के काले तालाब से निकला हुआ ठिठकी हुई ओस में मेरे आँसू की सिसकियों को घुलते हुए देखती होंगी तुम्हारी आँखें हरी दूब पर झर रही सुबह की धूप में तुम्हारे होने की खुशी में झरी हुई मेरी हँसी की स्मृति में चुनते होंगे सूर्य-रश्मि झरे हुए हरश्रृंगार के फूल की तरह जैसे मैं अकेले में तने पीपल के पेड़ की एक शाख पर लटके मधुमक्खी के मौन शहदीले छत्ते को देख तुम्हारी स्मृतियों में से कुछ बूँद शहद की  गिर-टपकी होंगी तुम्हारे सूखे अधरों पर जो याद में प्रायः हलक तक को सुखा देती हैं तुम्हारी हथेलियों की चाह की कोमल विकलता में कितना भरोसा देता है चाँद गहरी आधी रात में अकेलेपन की ठिठुरन में जब सारी उम्मीदें बनावटी कागज का घर लगती हैं ।

।। मन का ऋतुराज ।।

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आकाश के नील पत्र पर धूप-स्याही से हवाओं ने 'वसंत' शब्द लिखा मेरे मन का ऋतुराज तुम्हारी घड़ी में अपना समय देखता है तुम्हारे शब्दों में अपने लिए संकल्प तुम्हारी नींद में अपने लिए स्वप्न तुम्हारे लिखे में से अपने लिए शब्द आत्मीय शब्द तुम मेरी कलाई में घड़ी की तरह बँधे हो तुम्हारी घड़ी में है मेरा चंचल दिन ठहरी-ठिठकी रात तुम्हारी घड़ी-सुइयों में प्रतीक्षारत है मेरा समय ।

।। जहाँ न पाखी पहुँचते हैं, न पंख ।।

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तुम्हारे साथ प्रणय की परिक्रमा कि जैसे पृथ्वी की प्रदक्षिणा सूर्य के चतुर्दिक तुम्हारे साथ सौर-मंडल के सारे नक्षत्र दृष्टि और स्पर्श की परिधि में सिमटे दीप्ति-आलिंगन में हम दोनों को समेटते हुए जैसे चमकते तुम्हारे साथ नक्षत्रों की मुस्कुराहट की चमक का रहस्य तुम्हारी साँसों में प्रणय-शब्द सा अर्थ-सुख अमूर्त पर मूर्त प्रणय-शिल्पी की अनुभूतियों की प्रतिमूर्ति-मूर्तित सजग और सजल तुम्हारे साथ घूम आती हूँ कभी मछली-सी सागर की अतल गहराइयों को जीती-छूती उड़ आती हूँ कभी पक्षी-सी अनाम ऊँचाइयों के सहृदय रंगीन आकाश में तुम्हारे साथ प्रणय की परिक्रमा हाथ थाम ले जाती है मुझे वहाँ जहाँ न पाखी पहुँचते हैं, न पंख न मछली पहुँचती है, न जल न शब्द पहुँचते हैं, न अर्थ न शोर पहुँचता है, न मौन तुम्हारे साथ से प्रणय-सौरमंडल सरस इंद्रधनुषी नक्षत्र-लोक जिसे तुम्हारे नाम से जानती हूँ मैं जिसकी ऊर्जा तुम्हारे ऊष्म स्पर्श से पहचानती हूँ मैं ।

।। वह ।।

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साँसें धोती हैं देह रात-दिन देह पृथ्वी का बीज पंच तत्वों का प्राण बीज अपनी फड़फड़ाहट सौंप देती है पक्षियों को अपना ताप लौटा देती है सूरज को अपना आवेग दे देती है हवाओं को अपनी प्यास भेज देती है नदी के होंठों को अपना अकेलापन घोल देती है घने सन्नाटे में अपनी चुप्पी गाड़ देती है एकान्त कोने में फिर भी हाँ … फिर भी उसके पास यह सब बचा रह जाता है उसकी पहचान बनकर मन्दिर में ईश्वर को हाजिर मानकर वह लौटा देती है अपनी आत्मा गहरी शान्ति के लिए ।

।। करती हूँ अंगीकार ।।

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सूनी पृथ्वी जैसे पीती है धूप अँधेरी शीत के बाद रिक्त धरती जैसे सकेलती है धूल-कण प्राण लेवा प्रलय के बाद निष्प्राण पृथ्वी जैसे खींचती है हवाओं से प्राण-तत्व झुलस भरे तूफान के बाद तपी धरती जैसे सोखती है वर्षा से नमी भरी आर्द्रता भीतर तक कोयलाने के बाद शोर से बहरी हुई पृथ्वी जीने के लिए तलाशती है जैसे एकांत की मिठास मर्मान्तक आघात के बाद चीरते उजाले से दग्ध धरती सन्नाटे की अँधेरी गोद में जैसे सोती है बेसुध सन्तप्त होने के बाद जैसे जीती हो ओस-बूँद को सूखी धरती गहरी शुष्कता के बाद पतझर-ढकी पृथ्वी जैसे अगोरती है वसंत की आहट और जीवनदायी कोमल स्पर्श वैसे ही बिल्कुल वैसे ही मैं तुम्हें देह में प्राण की तरह करती हूँ अंगीकार ।

।। आस्था ।।

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आस्थाएँ जनती हैं प्रेम भरती हैं विश्वास मानस गर्भ में भीतर ही भीतर रचती रहती हैं  लोक कला का नूतन नमूना आस्थाएँ अनन्तगर्भी और मौन होती हैं नयन-नेह-गेह में साधनारत अधरों पर गूँजती आत्मा में विश्राम करती हुई आस्थाएँ जनती हैं प्रेम आस्थाएँ जानती हैं प्रेम आस्थाएँ स्पर्श चाहती हैं निर्जला व्रत के बाद आस्थाएँ नतमस्तक होती हैं शैल प्रतिमाओं के समक्ष आस्थाएँ हाथ बनकर निकल आती हैं आत्मा से बाहर और स्पर्श करती हैं पाषाण-प्रतिमा और अनुभव करती हैं आराध्य की पिघली शक्ति रक्त में घुली हुई आस्थाएँ स्पर्श करती हैं पर्वत को पिता की तरह सरिता को माँ समान आस्थाएँ सौंपती हैं अथाह-प्रेम शहद-सागर आँखें फिर-फिर दर्शनार्थ दौड़ा ले जाती हैं पाँव आस्था का अनन्य प्रणय स्पर्श करना चाहता है आत्मा का असीम स्नेह आस्था की आँखें पाषाण में बोती हैं ईश्वरीय छवि जैसे देह बोती है देह में प्रेम ।

।। शब्दाकांक्षा ।।

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फड़फड़ाते हुए पन्ने से कुछ शब्द पाखी या तितली की तरह निकल भागना चाहते हैं बाहर और कुछ शब्द गंध की तरह बस जाना चाहते हैं पन्नों के भीतर । कुछ भी बनने पर शब्दों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है । शब्द सिर्फ सचेत हैं अपने अस्तित्व के प्रति । क्योंकि आदमी के हाथों सब कुछ संकट में है खुद आदमी भी । मीठे शब्द में जब मिठाई का अर्थ न बचा हो और मनुष्य शब्द से जानवर होने की गंध आने लगे । शब्द अपने समय को नहीं देखते अब चुपचाप अपनी यात्रा में हैं अनुकूल अर्थ की तलाश में ।

।। अनुभव ।।

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परिचित ही सही          वह फिर मित्र हो या रिश्तेदार स्त्री हो या पुरुष घर में रहकर जब चले जाते हैं तब पराया हो जाता है घर उस समय भी और बाद तलक भी जब तलक नहीं हो जाती है सफाई घर की अपने हाथों कोने अँतरे तक की मन में ऐसे ही छोड़ जाते हैं विषाद हर लेते हैं एकांत का अपनापन सौंप जाते हैं अपनी इच्छाओं का अंबार                   और मन का कुचैलापन और तब महसूस होता है वेश्याओं की देह-घर से गुजर जाते होंगे जब लोग कैसे लेती होगी साँस अपनी ही देह में         अपने लिए कैसे जिंदा रहती होगी उस देह में जो रोज ही होती है परायी दिन में कई बार वासना के कीड़े बन चुके      आदमियों के कारण