।। धर्म से बाहर ।।
प्रेम को पृथ्वी की पहली और अंतिम चाहत की तरह मैंने चाहा है जब प्रेम ने सृष्टि में जन्म लिया था इसके बाद हम दोनों के हृदय बीज इसने पुनर्जन्म लिया है स्वार्थ के समय ने प्रेम को बहुत मैला कर दिया है और अविश्वास ने प्रेम का साँचा ही तोड़ दिया है जैसे ईश्वर से बने हुए धर्म में ईश्वर बाहर हो गया है जैसे धर्म के भीतर से लोगों ने ईश्वर उठा दिया है वैसे ही प्रेम में अब प्रेम नहीं बचा है प्रेम की पहचान को लोगों ने खो दिया है अपने मानस के धर्म में मैं फिर से ईश्वर रच रही हूँ अपनी आस्था की ताकत से वैसे ही अपने मन के धर्म से तुम्हारे हृदय में 'प्रेम' रच रही हूँ जिसे 'दुनिया' प्रेम के नाम से जाने और जाने कि प्रेम की पहचान क्या है कि वह जगत के जीवन की शक्ति बन सके मेरा प्रेम किसी भी दौड़ को पाने और पहुँचने का हिस्सा नहीं है ईश्वरीय भावना का ऐकात्मिक सम्मान है समर्पण और विश्वास प्रेम की पहचान शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे तुम मेरे मन और अस्तित्व की पहली