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नवंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। धर्म से बाहर ।।

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प्रेम को पृथ्वी की पहली और अंतिम चाहत की तरह मैंने चाहा है जब प्रेम ने सृष्टि में जन्म लिया था इसके बाद हम दोनों के हृदय बीज इसने पुनर्जन्म लिया है स्वार्थ के समय ने प्रेम को बहुत मैला कर दिया है और अविश्वास ने प्रेम का साँचा ही तोड़ दिया है जैसे ईश्वर से बने हुए धर्म में ईश्वर बाहर हो गया है जैसे धर्म के भीतर से लोगों ने ईश्वर उठा दिया है वैसे ही प्रेम में अब प्रेम नहीं बचा है प्रेम की पहचान को लोगों ने खो दिया है अपने मानस के धर्म में मैं फिर से ईश्वर रच रही हूँ अपनी आस्था की ताकत से वैसे ही अपने मन के धर्म से तुम्हारे हृदय में 'प्रेम' रच रही हूँ जिसे 'दुनिया' प्रेम के नाम से जाने और जाने कि प्रेम की पहचान क्या है कि वह जगत के जीवन की शक्ति बन सके मेरा प्रेम   किसी भी दौड़ को पाने और पहुँचने का हिस्सा नहीं है ईश्वरीय भावना का ऐकात्मिक सम्मान है समर्पण और विश्वास प्रेम की पहचान शर्तों, अनुबंधों और प्रतिबंधों से परे तुम मेरे मन और अस्तित्व की पहली

।। सुख का वर्क ।।

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मेरा मन तुम्हारे ही मन का हिस्सा है जिस कारण शेष हूँ मैं तुममें अनचाहे, अनजाने हासिल विध्वंस की तपन टूटन की टुकड़ियाँ सूखने की यंत्रणा सीलन और दरारें मीठी, कड़ुआहट और रंगीन जहर सब पर, तुम्हारे 'होने भर के' सुख का वरक लगाकर छुपा लेती हूँ सर्वस्व आँखों की पुतली के कुंड में भरे अपने खून के आँसुओं के गीले डरावनेपन को तुम्हारे नाम में घोल लेती हूँ सघन आत्मीयता के लिए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। सच ।।

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तुम मुझसे ज्यादा अकेले हो जबकि तुमसे अधिक मैं तुम्हारा इंतजार करती हूँ साँसों के होते हुए भी जिंदा नहीं हूँ जिंदगी तुम्हारे होने का पर्यायी नाम हूँ हम खोज रहे हैं अपना अपना समय एक दूसरे की धड़कनों की घड़ी में मैं अपने समय को तुम्हारी गोद में शिशु की तरह किलकते हुए देखना चाहती हूँ जिसमें तुम्हारा ही अंश बढ़ते हुए अपनी आँखों के सामने देखूँगी प्यार की तरह ।   ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। प्रकृति में तुम ।।

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सूर्य की चमक में तुम्हारा ताप है हवाओं में तुम्हारी साँस पाँखुरी में तुम्हारा स्पर्श सुगंध में तुम्हारी पहचान जब जीना होता है तुम्हें प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ और आँखें महसूस करती हैं मेरे भीतर तुम्हें मैं अपनी परछाईं में तुम्हें ही देखती हूँ क्योंकि मेरी देह तो 'तुम' बन चुकी है मैं तो तुम्हारे प्यार की परछाईं बन कर धरती पर बिछी हुई हूँ जिसे तुम्हारी देह छाया बनकर छूती है कि धरती तक खिल पड़ती है मेरी परछाईं में तुम्हारी खिली मुस्कुराहट 'शब्द' की तरह मैं अपनी परछाईं के कागज में तुम्हारे ओठों के रंग से लिखा हुआ देखती हूँ कि जिसे मेरे ओंठ चूम लेते हैं और आँखों के भीतर एक वसंत खिल पड़ता है तुम, इस तरह मेरी आँखों के भीतर प्यार की पृथ्वी रचते हो जिसे मैं शब्द की प्रकृति में प्रकृति से घटित करती हूँ । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। कोमल और रेशमी ।।

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प्रेम की लिखा-पढ़ी हृदय के कार्यालय में होती है अनुभूतियों की फाइलों में दबे होते हैं प्रणय के रस पगे सजे दस्तावेज प्रेम का खाता एक-दूसरे के हृदय में खुलता है मेरे प्यार से भी अधिक कोमल और रेशमी इस पृथ्वी पर कुछ नहीं बचा तुम्हारे लिए सब कुछ के होते हुए मेरी तरह । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। पुनर्जन्म का सुख ।।

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वह मुझे सुनता है अपने पहले प्यार की तरह वह मुझसे खेलता है बचपन की यादों की तरह वह मुझे खिलाता है अपने सुख का पहला कौर वह मुझे देखता है अपने भविष्य की तरह वह मुझे सहेजता है अपनी हथेलियों की तरह वह मुझे चूमता है अपने अनमोल सपने की तरह वह मेरे मौन को पढ़ता है सबसे सशक्त संवाद की तरह वह मुझे रचता है थकान उतार कर अपने प्यार से वह मुझे देता है पुनर्जन्म का सुख अपनी संतान को जन्म देने से पहले वह मुझमें प्यार जन्मता है सारी स्तब्धताओं के बावजूद मैं उस तरह नहीं चल रही जैसे दुनिया दौड़ रही क्योंकि मैं जानती हूँ जहाँ गति होती है वहाँ गहराई नहीं होती गति में सब कुछ छूटता जाता है आँखें भी नहीं पकड़ पाती हैं । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। अग्निगर्भी शक्ति ।।

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धूप में बढ़ाती हूँ अपनी आत्मा की अग्निगर्भी दीप्ति तुम तक पहुँचती हूँ तुम्हारे लिए अक्षय प्रणय-प्रकाश तुम्हारे मन की खिड़की से पहुँचता होगा निकट से निकटतर कि नैकट्य की नूतन परिभाषाएँ रचती होगी तुम्हारी अतृप्त आत्मा वृक्ष को सौंपती हूँ वक्ष की अंतस की परछाईं अपनी धड़कती आकांक्षाएँ मूँदे हुए स्वप्न झुलसी हुई मन-देह वृक्ष जिसे चुपचाप कहता है अपने झूम-घोल से जो तुम तक मेघ-दूत बन पहुँचता है गहरी आधी रात गए । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)