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।। तुम देखना ।।

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तुम देखना सूर्योदय में किरणों से तुमतक पहुँचूंगी मैं अँधेरे की रस्सी की गाँठ खोलते हुए जिसमें अकेलेपन का कसैला दर्द है तपाऊँगी तुम्हारी देह  अपने प्रेम से जैसे   आँखों के निकट हूँ तुम्हारे तुम देखना सूर्यास्त की सम्पूर्णता में मैं उगूँगी   तुम्हारे भीतर तुम पढ़ना रात की स्याह स्लेट पर मेरी साँसों की हवाओं की भीनी इबारत तुम देखना तुमसे ही   तुम पर उतरूँगी विश्राम-सुख की तरह तुम बैठना मेरी अनुपस्थिति में भी नदी के तट पर वह किनारा भी मेरी तरह ही साथ होगा  तुम्हारे चुप   तुम्हीं को निहारता हुआ तुम देखना ... (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। पढ़ना ।।

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लिफ़ाफ़े की तरह खोलती है शब्द और शब्दों से खोलती है मन सुनती है शब्दों में छुपी साँसों की आहटें लहरों की तरह आती हैं जो लगातार एक-पर-एक सुनते समय ही शब्दों में महसूस होते हैं आँसू कभी साँसों का स्निग्ध उत्ताप और धड़कनों की लरजती सिहरन आवाज़ के बीच छुपे होते हैं कुछ खामोश शब्द संबंधों के सघन उद्बोधन में संलग्न शब्द-संवेदना के सिहरते नक्षत्र-कोश तुम्हारी बतकहियों की मासूमियत को साँसों में सहेजकर रखती हूँ कि परेशानियों के बावजूद तुम्हारा अपना खिलंदड़ापन खींच ले जाता है मुझे  तुम्हारे पास कुछ ऐसा कहने के लिए जो अब तक नहीं सुन सके हो तुम

।। अनुभूतियों का अन्वेषक ।।

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प्रेम अनुभूतियों का अन्वेषक है प्रेम अपने जीवन में रचता है  नया जीवन खोजता है स्नेह-सृजन के नूतन स्रोत प्रेमानुभूति का तरल-पथ अभिव्यक्ति की नरम-खामोशी अनुभूति का मौनानंद अनकहा पर भीतर ही भीतर सब कुछ कहता हुआ जिसे पहली बार सुनती है आत्मा और समझ पाती है सुख का अर्थ जो देह से उपजता है देह से परे जाकर

।। निर्गुणिया सुख ।।

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घर की  किसी अलमारी में  रखते हैं   जैसे  ईश्वर का कोई रूप  मूर्ति या तस्वीर के बहाने  कुछ धर्मग्रंथों के साथ  बिल्कुल वैसे ही  कहीं बहुत भीतर रखती हूँ  अपना सजल प्रेम  कि पवित्र हो जाती है   सम्पूर्ण देह  ईश्वरीय मूर्ति की तरह  अलौकिक शक्ति से सम्पूर्ण  कि सुनाई देने लगती है  सभी धर्मों की गूँज  कि देखते देखते  देह बदल जाती है -  कभी मीरा के वाद्य यंत्र में  तो कभी कबीर के निर्गुण में  जिसमें ख़ुद को सुनते हुए  मैं  ख़ुद में बजने लगती हूँ  और गुनने लगती हूँ  प्रिय के संवाद  मन-ही-मन में । (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। परछाईं ।।

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सूर्य की  परछाईं में ... सूर्य  प्रकाश के  बिम्ब में ... प्रकाश  सूर्य निज-ताप से  बढ़ाता है  आत्म-तृषा  और नहाते हुए नदी में  पीता है  नदी को  नदी  समेट लेती है  अपने प्राण-भीतर सूर्य को  और जीती है  प्रकाश की ईश्वरीय-देह  नदी  बहती हुई  समा जाती है  समुद्र में  जैसे  मैं  तुममें  तुम्हारी होने के लिए ।   (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। लहरों का अलिखित प्रेम ।।

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गंगा से दूर होने पर भी  मन के गंगा-तट पर खिलती है धूप उदास समय के चेहरे पर खिला है   गंगा का आना  गंगाजल में बसी स्मृतियों पर बहती है  मंद- मंद हवा  थिरकती है   मन-जल में असंख्य छवियाँ  गंगा की लहरों की ध्वनियाँ बजती हैं प्रायः  खुले हैं   प्रतीक्षा के बंध  चतुर्दिक समायी है   गंग-शीतलता          और लहरों का अलिखित प्रेम  मन की गुफा में  ध्वनित हैं  अधीर उखड़ी साँसें  समा जाती हैं   अंतरात्मा में  गंगा की पवित्रता में  दूर तक फैल जाती हैं   भीतर-ही-भीतर लहरें  गंगा की गोद से उछलकर  रेत में आलिंगन में समायी लहरें  देह में  रम चुकी है   गंगा में  अंतस अंतरिक्ष में  समायी है   गंगा की पवित्रता । (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। उसकी होकर ।।

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एकांत में  अपनी आँखों में  महसूस करती है    प्रिय की आँखें  अकेलेपन में अपने  अनुभव करती है   प्रिय के ओंठों का स्वाद  उसके शब्दों की स्मृति की होकर  निज-शब्दों की स्मृति में  गूँथती है प्रिय की अनकही  प्रणय अभिव्यंजना  उसकी स्पर्शाकांक्षा में  जीती है    प्रिय की प्रणयाभिलाषा  अकेले ही  उसकी होकर  सुनती है  प्रिय के शब्द  और चुप हो जाती है  संप्रेषण के लिए  प्रिय को  ऐसे ही  संबोधित करने  और  जीने के लिए ।    (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)

।। अनुभूति रहस्य ।।

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प्रेम के क्षणों में  तुममें से उठे सवालों का जवाब देना चाहती हूँ  तुम्हारे हृदय का रिसता रस  मेरे प्रणय का रस है  जो तुमसे होकर मुझ तक पहुँचता है  प्यार एकात्म अनुभूतियों की  अविस्मरणीय दैहिक पहचान है  प्यार में मन  सपने सजाता है तन के लिए  और तन जन्म देता है  मन के लिए पुखराजी    सपने  प्यार में  मन तन धरती से  समुद्र में बदल जाता है  और समा जाती है   देह  एक दूसरे में  अनन्य राग  अनुराग की साँसों में  माटी से पानी में  बदल जाती है  पूरी देह  देह के भीतर के  उड़ने लगते हैं बर्फ़ीले पहाड़ बादल की तरह  देहाकाश में  इंद्रधनुषी इच्छाओं के बीच  प्यार में भाषाओँ  का कोई काज नहीं होता है  'प्यार' ही 'प्यार' की भाषा है  देश-काल की सीमाओं से परे  (हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'भोजपत्र' से)