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अप्रैल, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। सूर्य की सुहागिन ।।

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प्रेम उपासना में रखती है उपवास साँसें जपती हैं नाम आँसुओं का चढ़ाती हैं अर्ध्य हृदय दीप प्रज्ज्वलित करके कि निर्विध्न हो सके उपासना अक्षय-साधना ।  ऐसे में कुछ शब्द देह में पहुँचकर रक्त में घुल जाते हैं और बन जाते हैं देह की पहचान विदेह हुई देह में होती है मात्र प्रणय-देह अनन्य अनुराग में उन्मत्त अविचल थिरकती उपासना में सूर्य किरणों की लगाता है बिंदी माँग में भरता है सिंदूर सुहाग को बनाता है अमर प्रिया को अजर अमर सुहागिन अपने दीप्तिमान आशीष से ।