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।। सचेतन हूक ।।

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प्रेम देह की भूख से अधिक चित्त की सचेतन हूक है संवेदना के गर्भ से जन्म लेता है    प्रणय अनुभूतियों के स्पर्श से पलता है    प्रणय कि     मन देह तैरने लगती है अपने ही जाये प्रणय-सरोवर में खिलने लगते हैं    तृप्ति-कमल देह की ज्ञानेन्द्रियों में राग से पूर्ण हो उठती है प्राणों की जिजीविषा एक अलौकिक तृप्ति से भरकर लौकिक जीवन जीते हुए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। तुम देखना ।।

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तुम देखना सूर्योदय में किरणों से तुम तक    पहुँचूँगी मैं अँधेरे की रस्सी की गाँठे खोलते हुए जिसमें अकेलेपन का कसैला दर्द है तपाऊँगी तुम्हारी देह     अपने प्रेम से जैसे    आँखों के निकट हूँ तुम्हारे तुम देखना सूर्यास्त की संपूर्णता में मैं उगूँगी     तुम्हारे भीतर तुम पढ़ना रात की स्याह स्लेट पर मेरी साँसों की हवाओं की भीनी इबारत तुम देखना तुमसे ही    तुम पर उतरूँगी विश्राम-सुख की तरह तुम बैठना मेरी अनुपस्थिति में भी नदी के तट पर वह किनारा भी मेरी तरह ही साथ होगा    तुम्हारे चुप    तुम्हीं को निहारता हुआ तुम देखना ... (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। बच्चों के सपनों के लिए ।।

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बच्चों के बड़े होते ही खिलौने छोटे हो जाते हैं माँ खिलौनों को सहेज सहेज रखती है बच्चों के विदेश जाने पर उनके छूटे हुए बचपन को फिर फिर छूने की अभिलाषा में बच्चे जान जाते हैं जैसे ही खिलौनों के खेल में छुपे जीवन के झूठ को घर-बाहर हो जाते हैं जीवन के सच की तलाश में माँ ढूँढ़ती रहती है खिलौनों में छिपी उनकी उँगलियों को अपने बच्चों के मुँह में लगाए गए खिलौनों को चूमती है विदेश पढ़ने गए बच्चों के बिछोह को भूलने के लिए खिलौनों में बची हुई बच्चों की स्मृतियों को छू छू कर वह कम करती है स्मृतियों की पीड़ा अपनी यादों में रखती है वह उनके खिलौने यह सोचकर कि आख़िर उसकी ही तरह खिलौने भी याद करते हैं उसके बच्चों को पुराने तिपहिया साइकिल को भी कभी खड़ा कर देती है सूने बग़ीचे में और याद करती है बच्चों के पाँव जो अब मिलिट्री की परेड में हैं या वायुयान की उड़ान में या अपने देश की सुरक्षा में या देशवासियों की सेवा में अब भी बचपन में गायी गई तुलसी की चौपाई को ई-मेल में लिख पठाती है रामचरितमानस ही नहीं जीवन का सार भी

।। प्रकाश पर्व ।।

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अँधेरे आकाश के स्तब्ध कैनवास पर बनाया जाता है प्रकाश पर्व का अविस्मरणीय उत्सव बच्चों की नन्हीं हथेलियों से तैयार पटाख़ों के जख़ीरे से सितारों सज्जित अंतरिक्षी छाती पर धरती से छूटते हैं ... बेधते हैं चकाचौंधी पटाख़े नभ में बनाते हैं   रोशनी की अल्पना रंगीन रोशनी छिटकती है पाँखुरी की तरह पर पटाख़े गूँजते हैं    चीख बन कर आकाशी आँखों में पटाख़ी रंगी रोशनी रचती है प्रकाश का आनंद-सुख पटाख़ों का उठता हुआ उजला शोर धरती पर खींच लाना चाहता है स्वर्ग का सुख ... धरती का हर्ष ... दीपावली पर्व पर लेकिन कब से और क्यों सभ्यता ने रच दी अभिव्यक्ति के लिए पटाख़ों की भाषा ? ख़ुशी की ध्वनि के लिए रंगीन बमों के शब्द जो युद्ध और विध्वंस की भाषा है शत्रुता की कहानी के लिए तोप और बंदूक़ों की शब्दावली मिसाइल का आक्रमण चोरी छुपे गोलाबारी विश्व और खाड़ी-युद्धी इराक़ी, ईरानी, लिबीयाई, सीरियाई और पाकिस्तानी धरती के विध्वंसक शोर का हदस जगाऊ ऐतिहासिक इतिहास जिसमें बंद क्या शब्द-यात्री मनीषियों की हज़ारों वर

।। अपने ही अंदर ।।

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आदमी के भीतर होती है    एक औरत और औरत के भीतर होता है    एक आदमी । आदमी अपनी ज़िंदगी में जीता है    कई औरतें और औरत ज़िंदगी भर जीती है    अपने भीतर का आदमी । औरत अपने पाँव में चलती है अपने भीतरी आदमी की चाल बहुत चुपचाप । आदमी अपने भीतर की औरत को जीता है    दूसरी औरतों में और औरत जीती है अपने भीतर के आदमी को अपने ही अंदर । (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। गर्भ की उतरन ।।

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स्त्री जीवन में उठाती है   इतने दुःख कि 'माँ' होकर भी नहीं महसूस कर पाती है माँ 'होने' और 'बनने' तक का सुख स्त्री होती है   सिर्फ कैनवास जिस पर धीरे-धीरे मनुष्य रच रहा है घिनौनी दुनिया जैसे   स्त्री भी हो कोई पृथ्वी का हिस्सा मनुष्य से इतर स्त्री झेलती है    जीवन में इतने अपमान कि भूल जाती है    आत्म-सम्मान स्त्री अपने को धोती रहती है    सदैव अपने ही आँसुओं से जैसे   वह हो कोई एक मैला-कुचैला कपड़ा किसी स्त्री-देह के गर्भ की उतरन (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। झील का अनहद-नाद ।।

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कोमो झील की तटवर्ती उपत्यकाओं में बसे गाँवों में तेरहवीं शताब्दी से बसी हैं   इतिहास की बस्तियाँ शताब्दी ढोतीं प्राचीन चर्च के स्थापत्य में बोलता है   धर्म का इतिहास इतिहास की इमारतें खोलती हैं   अतीत का रहस्य सत्ता और धर्म के युद्ध का इतिहास सोया है   आल्पस की कोमो और लोगानो घाटी में झूम रहा है   झील की लहरियों में अतीत का युद्धपूर्ण इतिहास वसंत और ग्रीष्म में झील के तट में गमक उठते हैं फूलों के रंगीले झुंड रंगीन प्रकृति झील के आईने में देखती है   अपना झिलमिलाता रंगीन सौंदर्य झील का नीलाभी सौंदर्य कि जैसे पिघल उठे हों नीलम और पन्ना के पहाड़ प्रकृति के रसभरे आदेश से झील के तटीले नगर-भीतर टँगी हैं पत्थर की ऐतिहासिक घंटियाँ पथरिया आल्पस के सुदृढ़ता का राग गाती हैं अनवरत   झील की तरंगे तट से लगकर ही सुना जा सकता है जिसका अनहद नाद और जल के सौंदर्य में बिना डूबे ही पिया जा सकता है   जल को जैसे आँखें जीती हैं झील-सुख बग़ैर झील में उतरे-उतराये झील के दोनों पाटों के गाँव घर अपनी जगमगाहट में मनात

पुष्पिता का पहला उपन्यास 'छिन्नमूल'

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विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित एक दर्जन से भी अधिक कविता-संग्रहों की रचयिता  पुष्पिता अवस्थी का अभी हाल ही में पहला उपन्यास  'छिन्नमूल'  प्रकाशित होकर सामने आया है । अंतिका प्रकाशन द्धारा प्रकाशित  'छिन्नमूल' सिर्फ पुष्पिता अवस्थी का ही पहला उपन्यास नहीं  है  - बल्कि औपनिवेशिक दौर में बतौर गुलाम सूरीनाम गए  भारतवंशी किसान-मजदूरों की संघर्षगाथा के साथ-साथ  वहाँ की वर्तमान जीवन-दशा, रहन-सहन, रीति-रिवाज और  सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को उद्घाटित करने वाला  अपने ढंग का भी पहला उपन्यास है ।   अरसे तक सूरीनाम में रह चुकीं पुष्पिता अवस्थी ने  जितने सारे डिटेल्स के साथ सूरीनाम के संपूर्ण जन-जीवन को  दैनंदिन व्यवहारों और कार्य-कलापों के विवरण के साथ  इस उपन्यास में समेटा है, वह इसको महाकाव्यात्मक विस्तार और ऊँचाई देता है ।  248 पृष्ठों में समायी 'छिन्नमूल' की मूल कथा में  राजनीति, समाज, संस्कृति, इतिहास, धर्म और दर्शन  अंतरगुंफित हैं । एक तरह से कहा जाए तो इस उपन्यास का  नायक एक व्यक्ति न होकर पूरा सूरीनाम देश है ।  

कुछ छोटी कविताएँ

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।। नाखून ।।  आदमी  धीरे-धीरे कुतरता है  अपनी औरत को  जैसे  वह  उसके ही हाथ का  नाखून हो ।  ।। जोंक ।।  आदमी  चूमते हुए चाटता है     औरत को  जोंक की तरह  बाहर से भीतर तक  ।। ताबूत ।।  औरत की देह ही  औरत का ताबूत है  जिसे    वह  जान पाती है  उम्र ढलने के बाद  जीवन भर  एक ही यात्रा  दैहिक ताबूत से  भौतिक ताबूत तक  ।। ग्रेवयार्ड ।।  एक ग्रेवयार्ड से  गुज़रते हुए औरत  सोचती है  चलती हुई कारों के  उस पार  मृतकों का ग्रेवयार्ड है  और  इस पार  चलते और चलाते मनुष्यों का  ज़िंदा ग्रेवयार्ड  ।। आवाज़ ।।  संपूर्ण देह को  एक नया शब्द चाहिए  आत्मा भी शामिल हो जिसमें  और दिखाई दे  जैसे देह में  दिखाई देती हैं    आँखें  देह  आत्मा की ज़रूरत  नहीं समझती है  आत्मा का दुःख  सिर्फ़ आत्मा जानती है  और साँसों से कहती है  सिर्फ़ ब्रह्माण्ड के लिए (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। साल्विनी ।।

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माँ के सौंदर्य रस ने रची है देह सरस कि जैसे नैसर्गिक सौंदर्य ने धारण की है देह पुनः जीने के लिए हृदय ने खोली है अपनी आँखें तुम्हारी आँखों में अधरों ने किया है धारण संवेदनाओं का स्पंदन सौंदर्य ने लिया है चित्रलिखित अपरूप रूप कि सौंदर्य-बूँद ने रची है संपूर्ण देह कि चंचलता भी लरजती है तुममें तुमसे संभलकर प्रेम भी उझकता है   दबे पाँव चेहरे पर जीवन की तरंगे भी सहेजती हैं तुम्हें तुममें ही सौंदर्य को साधने के लिए कृत्रिम और आधुनिक हो चुके समय से बचाने के लिए कभी तुम्हारी 'माँ' की तरह कभी तुम्हारे 'पिता' की तरह (नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)

।। अर्ना ।।

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स्त्रीदेह धारी आत्मा का नाम है ... झिलमिलाती नीली आँखों में दिखती है   आत्मा की पारदर्शी स्थिर परछाईं पूर्ण चाँद सरीखी । शब्दों में गूँजती है   उसकी आत्मा की अनोखी आवाज़ अर्ना की स्त्री देह को अचंचल बनाए हुए हैं साधनारत आत्मा चेहरे पर उसके सधा हुआ है   आत्मा का सौंदर्य कि पवित्र हो जाती है दृष्टा की दृष्टि से अंतर्दृष्टि तक अर्ना ने रची है    अपनी आत्मा की भाषा वह सुनती है    आत्मा की आवाज़ अर्ना अपनी आत्मा की सहचर है जानती है    आत्मा की शक्ति को निज शक्ति में संचारित करना वह जानती है    चुप्पी को सुनना मौन को पढ़ना अर्ना की आँखों में रहती है    उसकी आत्मा नील जलजीवी परी सरीखी लख कर जिसे पवित्र कर लेती है   दुनिया अपने संस्कार संपूर्ण देह में तरंगित है    आत्मा स्पर्श में उसके अपना असर छोड़ती है    आत्मा नीदरलैंड   देश के महारानी दिवस को जन्मी   अर्ना ख़ुश है कि   इस दिन पूरे देश में रहता है अवकाश और अवकाश को जीने की उत्सवी आज़ादी आत्मा की अलौकिक आभा के कारण

डॉक्टर रेवती रमण के मूल्यांकन के अनुसार पुष्पिता अवस्थी का 'भोजपत्र' शकुंतला का कमल-पत्र है

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पुष्पिता अवस्थी ने पिछले दिनों ही प्रकाशित अपना एक कविता संग्रह 'भोजपत्र' वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह की स्मृति को समर्पित किया है । समर्पण-संदेश में उन्होंने शमशेर को  'प्रेम की अंतर्पर्तों के चितेरे'  के रूप में रेखांकित किया है । अंतिका प्रकाशन द्धारा प्रकाशित 'भोजपत्र' के समर्पण-संदेश में पुष्पिता ने अपनी एक कविता की कुछेक पंक्तियों को भी प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार हैं : 'प्रणय-देह के भोजपत्र हैं   मन   मानस    आत्मा     देह सृष्टि और ब्रह्मांड समाया है इनमें प्रेम और प्रेम में समाये हैं ये' 'भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह में 174 पृष्ठों में पुष्पिता की 127 कविताएँ  प्रकाशित हैं । दस पृष्ठों में डॉक्टर रेवती रमण ने इन कविताओं का  वस्तुपरक मूल्यांकन किया है । संकलन का आवरण चित्र  शशिकला देवी की रचना है । फ्लैप पर डॉक्टर रेवती रमण के 'अनुभूति का रजकण ही प्रणय है' शीर्षक मूल्यांकन आलेख का एक महत्त्वपूर्ण अंश है, जो इस प्रकार है : 'भोजपत्र' की अधिसंख्य कविताएँ प्रेम करने और पाने की प्

पुष्पिता अवस्थी की उपस्थिति के कारण अंतरराष्ट्रीय चीज़ महोत्सव का उद्घाटन कार्यक्रम हिंदी साहित्य संसार के लिए भी एक उल्लेखनीय अवसर बना

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प्रख्यात हिंदी कवयित्री पुष्पिता अवस्थी की मौजूदगी ने   उत्तरी हॉलैंड के प्राचीन शहर अलकमार के सिटी सेंटर में नहर के तट पर स्थित  चीज़ संग्रहालय में आयोजित हुए ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय चीज़ महोत्सव के  उद्घाटन कार्यक्रम को एक अलग तरह की गरिमा व भावनात्मक संलग्नता प्रदान की ।  यह उद्घाटन कार्यक्रम के आयोजकों की व्यापक संवेदनशील सोच का भी  सुबूत है कि उन्होंने एक व्यावसायिक पहचान वाले कार्यक्रम में  एक लेखक - वह भी एक कवि की मौजूदगी को सुनिश्चित किया ।   हॉलैंड के महत्त्वपूर्ण लेखकों, गायकों, पेंटरों, अभिनेताओं, खिलाड़ियों व  प्रशासनिक अधिकारियों की उपस्थिति में -  अलकमार के मेयर पित ओखेन ब्राउन तथा उनकी पत्नी ऐली के नेतृत्व में  हॉलैंड में भारत के राजदूत जेएस मुकुल द्धारा अपनी पत्नी मीता के साथ मिलकर  उद्घाटित किया गया यह कार्यक्रम  पुष्पिता अवस्थी की उपस्थिति के कारण  हिंदी साहित्य संसार के लिए भी एक उल्लेखनीय अवसर बन गया । उल्लेखनीय है कि 'चीज़' ने हॉलैंड को दुनिया में एक विशेष पहचान दी हुई है ।    पूरी दुनिया में हॉलैंड की चीज़ की अपनी अविस्मरण

।। 'धी' हो तुम ।।

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कवि ने लख लिया है    तुम्हें जैसे  अलख निरंजन को लखता है   वह कवि ने ध्वनि विस्फोट में तुम्हारे सुन लिया है तुम्हें   जैसे बादलों की भीतरिया मेघदूती अनुगूँज हो तुम ! तुम्हारी आवाज़ खिले हुए फूल की तरह है प्रस्फुटित और सुवासित भाषा की मात्र दुभाषिया ही नहीं वरण भाष्यशिल्पी हो खजुराहो के शिल्पियों की तरह हिंदी काव्यभाषा का करती हो    सहज देहांतरण रूसी भाषा में निजभाषा की प्राणरक्षक 'माँ' होकर गाँठती हो   रिश्ता सांस्कृतिक भाषा परिवार से अन्य भाषाओं के सृजन की सर्जक संवेदनाओं के रूपांतरण में प्रवीण अपनी मेधा से पिलाती हुई   शब्दों को अर्थ सुनते हुए देखती हो पढ़ते हुए समझती हो अपने मौन में भी बोलती हो सच्चे अर्थों में 'धी' हो तुम अनास्तासिया गुरिया