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मई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। यात्रा ।।

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गहरी रात गए सो जाती है जब पृथ्वी भी अपने हर कोने के साथ पत्तियाँ भी बंद कर देती है सिहरना सृष्टि में सुनायी देने लगती है सन्नाटे की साँसें स्थिरता भी आकार लेने लगती है स्तब्धता में सोयी पृथ्वी में जागती है सिर्फ रात और चमकते हैं नक्षत्र नींद के बावजूद नहीं आते हैं सपने उसे करती है तब वह कोमल संवाद मैं   जीती हूँ तुम्हें       उसी में      जीती हूँ खुद को मैं    सुनती हूँ तुम्हें       पर सुनाई देती है       अपनी ही गूँज मैं    देखती हूँ खुद को       जब भी देखना होता है तुम्हें मैं    देखती हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा        अपनी प्रतीक्षा की तरह मैं   गुनती हूँ तुम्हारी जिजीविषा       अपने सपने की तरह मैं    चखती हूँ तुम्हारी विकलता       अपनी असह्य व्याकुलता की तरह मैं   स्पर्श करती हूँ तुम्हारी आत्मा का अनंत      अपनी आत्मा की अंतहीन परतों में कि मैं भी करने लगती हूँ प्रदक्षिणा (परिक्रमा)      प्रणय पृथ्वी की      स्मृतियों में      तुम्ह

।। प्रणय-संधान ।।

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पिय को वह  पुकारती है          कभी सूर्य          कोई नक्षत्र          कभी अंतरिक्ष          कभी अग्नि          कभी मेघ          कभी सृष्टिदूत          कभी शिखर  स्वयं को  मानती है          कभी पृथ्वी          कभी प्रकृति          कभी सुगंध          कभी स्वाद          कभी पुलक          कभी आह्लाद          कभी सिहरन  और सोचती है  अनुभूति का रजकण ही  प्रणय है  आत्मा से प्रणय-संधान के लिए । 

।। आत्मीयता ।।

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                                  कोमल शब्द  अजन्मे शिशु की तरह  क्रीड़ा करते हैं  संवेदनाओं के वक्ष भीतर  और भर देते हैं  - सर्वस्व को अनाम ही आत्मीय शब्द  विश्वसनीय हथेलियों में सकेलकर  चूम लेते हैं  उदास चेहरा  (चुम्बन की निर्मल आर्द्रता में  विलय हो जाते हैं लवणीय अश्रु) शब्दों की लार से  लिप जाती है  मन की चौखट  नम हो उठता है सर्वांग  चित्त की सिहरनें  नवजात शिशु की  नवतुरिया मुलायमियत सी  अवतरित होती है  चेतना की देह में  कि शब्दों के तलवों में  उतर आती है प्रणयी कोमलता  जिसमें चुम्बन से भी अधिक होती है  चुम्बकीय तासीर  संवेदनाओं के पक्ष में   

।। हृदयलिपि ।।

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                                  प्यार  हस्तलिपि सरीखा है अनोखा  प्रिय ही पढ़ पाता है जिसे  भीगती है वह  अपनी ही बरसात में  तपती है वह  अपने ही ताप में  प्रणय के स्वर्ण-भस्म में  तब्दील हो जाने के लिए  अपने प्रेम में  रहती है वह  उसका प्रेम ही  उसकी अपनी  देह है  जिसमें जीती है वह  अस्तित्व में  अस्मिता की तरह  साँसें जीती हैं   देह  देह में जीती हैं   धड़कनें  धड़कनों की ध्वनि से  रचाती है शब्द  हस्तलिपि में बदलने के लिए  और उकेरती है  हृदयलिपि ।