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।। राग में शब्द ।।

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प्रेम में साँस की लय में रचे हुए शब्द घुल जाते हैं    अपनी लय में जैसे    राग में शब्द          शब्द में राग । प्रेम की सार्वभौमिक गूँज-अनुगूँज में विस्मृत हो जाता है   स्व और सर्वस्व शेष रहता है    प्रेम          और… सिर्फ प्रेम प्रेम प्रेम जैसे       समुद्र में समुद्र       धरती में धरती       सूरज में सूरज       चाँद में चाँद       और तृषा में तृप्ति                   प्यास में जल जीवन में    जीवन की तरह ।

।। शब्दों के पूर्वजों से ।।

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मन-वक्ष से बिछुड़े हुए मन की पसीजी हुई कशिश तुम्हारी हथेलियों की छूट गई है मेरी मुट्ठी में फड़फड़ाती चिड़ियों की स्तब्ध फड़फड़ाहट ठहर गई है मेरी साँसों में तुम्हारी अनुपस्थिति की तुमसे कुछ कहने की कोशिश में अपने शब्दों में शब्दों के पूर्वज को याद करते हैं उन पूर्वजों में खोजते हैं अपनी आत्मा के पूर्वज शिकस्त पड़ी हुई आत्मा को कुछ होश में ला सके शब्दों में पूर्वजों की स्मृति स्मृति में शब्दों के पूर्वज ।

।। अधूरे चाँद के निकट ।।

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सूर्य रश्मियों से सोख ली है प्रणय उर्मियाँ अधूरे चाँद के निकट रख दी हैं स्मृतियाँ ह्रदय प्रसूत तुम्हारे शब्द पूर्णिमा की ज्योत्स्ना से समृद्ध स्वाति नक्षत्र की बूँद से पी है निर्मल नमी वसन्त के गन्ध-बीज को उगाया है मन वसुधा में साँसों में जो रहता है मेरी खिड़की को थामे अंतरिक्ष के तारे को और आँखों के भीतर स्वप्न-पुरुष बनकर नाम दिया है उसे तुम्हारी नक्षत्र-लोक में अपना प्राण-पुरुष भेजा है चुपचाप ।

।। आत्मा के समुद्र की व्याकुल आहटें ।।

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मन मछली को देह नदी से निकालकर डुबा देना चाहती है वह आत्मा के समुद्र में क्योंकि रेत नदी है   देह सूखी और प्यासी मन के उजाले को देह के अन्ध-अँधेरे कोटर से निकाल सूर्य-रश्मि बन लौट जाना चाहती है वह सूर्य-उर में अन्तहीन अँधेरी सुरंग है देह पथहीन मन की धड़कनों की ध्वनियों में रचना चाहती है तुम्हारे नाम के पर्यायवाची शब्द उन शब्दों में रमाकर अपनी धड़कनों को भूल जाना चाहती है 'स्व' को और महसूस करना चाहती है ऋचा की पवित्र अनुगूँज की तरह तुम्हें मिथ्या-शब्दों के छल से दग्ध आत्मा को निकाल लेना चाहती है तुम्हारे नाम से तुम्हारी साँसों से अपनी संतप्त धड़कनों के बाहर मन की साँसों से ऋतुओं के प्राण को खिला देना चाहती है देह-पृथ्वी के अनन्य कोनों में तुम्हारी कोमलता की हथेली में लिख देना चाहती है वह अपने अधरों से कुछ प्रणय-सूक्त तुम्हारे नाम की पवन-धारा में नहा आई साँसों को लगा देना चाहती है प्रणय-देह-शंख में जीवन-जय-घोष के लिए मन-देह को प्रणय-शब्द-देह मे

।। आत्मलीन ।।

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।। तुम्हारा तुम ।।

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।। तुममें समय ।।

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तुममें समय और समय में तुम्हें देख पाती हूँ   तुममें कालिदास और कालिदास में तुम्हें पढ़ आती हूँ   तुममें सागर और सागर में तुम्हें जी लेती हूँ   तुममें ऋतु और ऋतुओं में तुम्हें खोज लेती हूँ   तुममें प्रणय और प्रणय में तुम्हें महसूस करती हूँ   तुममें शब्दार्थ और शब्दार्थ में तुम्हें निहारती हूँ   तुममें अस्तित्व और अस्तित्व में तुम्हें धारण करती हूँ   तुममें सुख और सुख में सिर्फ तुम्हें बुलाती हूँ ।

।। मेरी आँखें तुम्हारा एलबम ।।

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आँखों में तुम्हारी तस्वीरें रखी हैं मेरी आँखें तुम्हारा ही एलबम हैं तुम्हारी आवाज संगीत की तरह गूँजती-बजती है भीतर-ही-भीतर नए राग की तरह रागालाप में लगी रहती है निरन्तर साधक की तरह धड़कनों में धड़कती हैं तुम्हारी ही धड़कनें साँसों में प्रणय साधना अविचल तुम्हारी ही हथेलियों के स्पर्श से जाना कि खजुराहो के शिल्पी तुम्हारे ही पूर्वज रहे हैं मन-देह भीतर गढ़ी है एक प्रणय-प्रतिमा-जीवन्त जिसे अपनी आँखों से अनावृत किया है मेरी आँखों में ।

।। कसक-कथा ।।

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प्रेम मन का शब्द देह का मौन प्रेम मन का चैन देह का सुख प्रेम मन की निश्चलता देह की चंचलता प्रेम मन का ग्लेशियर देह का लावा प्रेम मन की गुप्त गोदावरी देह का प्रपात प्रेम मन की तरल सुगंध देह का भीना लावण्य प्रेम मन की मंजूषा देह की मंजरी प्रेम मन का स्पंदन देह का विकल क्रन्दन प्रेम मन की निर्मल अकुलाहट देह की पवित्र अभिव्यक्ति प्रेम मन की शीतलता देह का धवल ताप ।

।। चुपचाप अँधेरा पीने के लिए ।।

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तुम्हारी आवाज के वक्ष से लगकर रोई है मेरी सिसकियों की आवाज अक्सर विदा लेते समय अपनी सुबकियाँ छोड़ आते हैं होंठ तुम्हारे भीतर तुम्हारी हथेली के स्पर्श में महसूस होता है दिलासा और विश्वास का मीठा और गहरा नया अर्थ मन गढ़ता है मौन के लिए नए शब्द जिसे समय-समय पर सुनती है मेरे सूने मन की मुलायम गुहार अपने थके कन्धों पर महसूस करती हूँ तुम्हारे कन्धे जिस पर चिड़िया की तरह अपने सपनों के तिनके और आँसू की नदी छोड़ आती हूँ चलते समय हर बार (कैसे बहने से बचाओगे मेरे सपने मेरे ही आँसुओं की नदी से) तुम्हारी दोनों आँखों में एक साथ है सुबह का तारा और सान्ध्य तारा जिसे मेरी आँखों की स्तब्ध अंजुलि में सौंपकर मुझे विदा करते हो तुम अकेले चुपचाप अँधेरा पीने के लिए ।

।। एक ऋतुराज के लिए ।।

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तुम्हारी आँखें लिखती हैं चिट्ठी आँखों के कागज पर पढ़वाती हूँ जिसे हवाओं से और तुम्हारी साँस-सुख खींच लेती हूँ वृक्षों से और तुम्हारे अस्तित्व में विलीन हो लेती हूँ सूर्य से और तुम्हारा प्रणय-ताप रक्त में जी लेती हूँ मेघों से और तुम्हारे विश्वासालिंगन में सिमट जाती हूँ तुम्हारी छवि-परछाईं के रन्ध्र-रन्ध्र के दर्पण में उतर जाती हैं पुतलियाँ सारी रात बिनती और सहेजती हैं चुए महुए-सा जिसे तुम्हारी आँखें लिखती हैं पाती मन के दोनों पृष्ठों पर जैसे हवाएँ एक साथ लिखती हैं वसुधा और गनन के मन भीतर नम पाती जिसे ऋतुएँ बाँचती हैं हर बार एक ऋतुराज के लिए हवाओं में घोलती हूँ साँसें और साँसें लिखती हैं तुम्हारे नाम चिट्ठी हवाओं में और तुम्हें खोजती हैं दसों दिशाओं में धूप में बढ़ाती हूँ अपनी आत्मा की अग्निगर्भी दीप्ति तुम तक पहुँचाती हूँ तुम्हारे लिए अक्षय प्रणय प्रकाश तुम्हारे मन की खिड़की से जो पहुँचता होगा तुम्हारे निकट से निकटतर कि नैकट्य की नूतन परिभाषाएँ रच

।। धूप की धारदार आँच में ।।

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सादे कागज को धूप की धारदार आँच में सेंककर और अधिक उजला किया रात की स्याह हथेलियों के अंधे छापे से बचाकर कोरे कागज पर  चाँद की तरल चाँदनी से भिगोकर एकसार शब्द लिखे बिना अक्षरों के अनुभूत करनेवाली अनुभूतियों की भाषा लिखी सादे कागज को चंचल हवाओं का नरम सुख पिलाया ऋतुओं की बारीक गंध धागों से मन के कोर बाँधे सादे कागज पर और कुछ पाँखुरी रखी (फूल के अधूरे-अधर हस्ताक्षर) कोरे कागज पर जिंदगी के सूने पन्नों पर ऐसे ही रचा जा सकता है आत्मीय शब्दों का मोहक जंगल बिना किसी अपेक्षा के सादे कागज के कोरेपन पर झरने का शोर झरता है शब्द बनकर अनायास एक समुद्र-सा उमड़ता है मन की सीमाओं को तोड़कर मन के भीतर ही एक नया भाषा-समुद्र रचता हुआ बिना ध्वनियों के बारीक इबारत आँखों के बिना जिसे मन पढ़ता है कोरा मन …

।। तुम्हारे अंतरंग के अथाह तल पर ।।

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अगर सिर्फ प्रेम कहना चाहती तो बहुत सरल कुछ शब्द लिख देती कोरे कागज पर सूखी रेत पर और रच देती प्रेम का पूरा संसार तुम्हारे अंतरंग के अथाह तल पर उजली महक की अनुभूतियों का महाप्रस्थान तुम्हारी भावना की वेदी में समाहित होकर चिर समाधि में विलीन होना चाहता है मेरी बेबस बेचैन आत्मा की उतप्त अकुलाहट देह से परे जाकर दूसरी आत्मा की देह को सुनना चाहती है आत्मा-मुक्ति के लिए भावना के नवाचार में बँधी प्राण-देह तितली की तरह विकल होकर उड़ने से अधिक बोलना चाहती है प्रेम के नए-नए शब्द नए-नए रंग में कहना मुश्किल कि तितली के पंखों के रंगों में कहाँ से आती है शहद-सी मिठास वैसे ही, बिल्कुल वैसे ही जानना मुश्किल मन की प्रकृति में कहाँ से शामिल होता है प्रेम का सौभाग्य-सुख बगैर किसी पूर्व-संकेत के ।

।। आत्मा की अंजुलि में ।।

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आत्मा की अंजुलि में तुम्हारी स्मृतियों की परछाईं है जो घुलती है आत्मा की आँखों में और आँसू बनकर ठहर जाती है कभी आँखों के बाहर कभी आँखों के भीतर तुम्हारी आत्मा के अधरों में धरा है प्रणयामृत शब्द बनकर कभी होंठों के बाहर कभी होंठों के भीतर तुम्हें लखते हुए आँखें खींचती हैं तुम्हें सघनतम प्राण-ऊर्जा से आँखों के भीतर कि तुम्हारी अनुपस्थिति के क्षण को जी सके एकाकी आत्मा जैसे चाँद सारी रात उजलता हुआ भटकता है बस भटकता है सारी रात दिन के उजाले में खोकर भी खोजता है तुम्हें और तुम्हारा बजूद चाँद के साथ तारों-सितारों की घनी बस्ती है  सप्तर्षि से लेकर ध्रुव तारा तक आकाश-गंगा और मंगल-ग्रह तक पर चाँद के लिए कोई प्रणय गंगा नहीं कोई सहचर-सरिता नहीं चाँद ऐसे में जनता है अपने ही अस्तित्व में अपनी ज्योत्स्ना अपने लिए अपनी चाँदनी चाँद उसमें खोता है और चाँदनी उसमें कहीं ऐसे ही तुम मुझमें और मैं तुममें तो नहीं ।