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अगस्त, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। देह की चाक से ।।

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सब कुछ साँस ले रहा है मेरी देह में संपूर्ण सृष्टि तुम्हारी प्रकृति बनकर एक अंश में धड़क रही है मेरे भीतर अधरों में अधर आँखों में आँखें साँसों में साँसें हथेली में स्पर्श हृदय में साँस ले रही है तुम्हारी ध्वनि अनहद नाद की तरह अपने सर्वांग में मैं जीती हूँ   तुम्हारा सर्वस्व तुम्हारे शिवत्व को साध रही हूँ   अपनी शक्ति में तुम्हारा अंतस और बाह्य गढ़ रही हूँ अपनी देह की चाक में कुम्हारिन की तरह तुममें खुद को खोकर ही जाना है प्रेम में जीना और अर्धनारीश्वर हो जाना लेकिन सर्वस्व विसर्जन की समर्पिणी साधना के बाद देह के ब्रह्मांड में नव नक्षत्र की तरह अपनी धड़कनों में चमक रहा है तुम्हारा प्रणय देह की कांति बनकर स्फूर्ति रच रही है मेरे ही भीतर प्रेम प्रेम का स्थायी सुखोत्सव गर्भ की आँख में लगाया था तुमने काजल लाल आँसू बन कर रिस गया वह गहराई से जिए गए सघन संबंधों को भरा था गहरे अर्थ से कि इससे पहले जैसे यह शब्द अर्थ के बिना था अनुभूति की दुग्ध नलिकाओं से उतरने लगा

।। आँसू छुपाकर ।।

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आँसू छुपाकर रोती हैं     आँखें जैसे नजरें बचाकर मिलती हैं     नजरें ओंठ सहेज रखते हैं स्पर्श का कोमल सुख जैसे शब्दों में शेष है नाजुक अर्थ-छुअन यादें, याद करती हैं यादों की सुगंध मन के कहीं कोना भर मटियाली जगह पर उग आता है    प्रिय के ओंठों से लगाया प्यार का पेड़ कि पूरी देह 'कल्पवृक्ष' से भी जादुई हो जाती है जिस पर उकेरा जा सके तुम्हारा नाम क्योंकि तुम अनोखे प्रणय के आविष्कर्ता हो तुम्हारी आँखों के मिलान और ओंठों के स्पर्श से जन्म लेते हैं    नए शब्द अपने अद् भुत नयनालिंगन में रचते हैं बिना छुए छुअन की अनबोली मीठी भाषा जिसका स्वाद पूरी देह में घुलकर रचता है मिठास का आनंद स्वाद से परे जाकर । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। रेत की नदी ।।

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उदास मन की जड़ें  रेत की नदी में हैं प्यासी और प्यासी तुम्हारे सुख के अलावा कोई खुशी नहीं हँसा पाती है   उदासी को अपनी ही आँखें नहीं सोख पाती हैं आँसुओं के चिह्न किसी ईश्वरीय-मौन में नहाकर उदासी धो लेना चाहती है अपना करुण चेहरा तुम्हारी अनुपस्थिति में चुपचाप कहाँ से उग आते हैं नागफनी के काँटे चेहरे में शब्दों में साँसों में प्रणय उतार फेंको    उदासी का समुद्री मछुआरी जाल जिसमें भगवान के प्यार के आनंद की चमक भी घुटन में दब जाती है । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। रक्त-बूँद ।।

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                              हर पल के पार जाने के लिए खून का बूँद-बूँद देती हूँ और परे होती हूँ समय के तुम्हारे पास पहुँचने के लिए तुम्हारी हथेलियों में है मेरी जिंदगी जिसे ओठों से पीकर ही जी पाती हूँ तुम्हारी हथेली एक वृक्ष की तरह मेरी हथेली में खिल रही है तुम्हारी मुस्कुराहट की तरह जिसे देखने के लिए ही ऑंखें खुलती हैं वरना आँखों के घर में मैं तुम्हारे साथ हूँ तुमसे दूर हो कर भी बूँद-बूँद खून देकर जी पाती हूँ अपनी अस्मिता की  जिद की लड़ाई नवरात्र की साधना में तुम हो मेरी सिद्धि मेरे सारे सपने तुम्हारी आँखों में पलते हैं जिसकी उजली कोमलता मैं चूम कर महसूस करती हूँ तुम्हारी जिंदगी की तारीखें मेरी जिंदगी की डायरी के पन्ने हैं जिनमें मैं तुम्हारा नाम लिखकर तुममें तुम्हारे सपने भरती हूँ । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। दर्पण ।।

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तुम्हारी अनुपस्थिति में घर का दर्पण रहता है उदास मेरी तरह     सूनेपन से संपूर्ण घबराए हुए स्वप्न देखते हैं    अपना चेहरा समय छोड़ जाता है अपने कुछ प्रश्नचिह्न परछाईं में उतर आए हो तुम स्मृतियों से छनकर मोहक तसवीर में आँखों के करघे पर अदृश्य आँखें बुनती हैं अलौकिक स्मृति पट्ट स्मृति अधर लिखते हैं अदृश्य हृदय भाष्य स्वप्न खोजते हैं स्मृतियाँ स्मृतियाँ देखती हैं      नवस्वप्न अपने अकेलेपन में तुम्हारी अनुपस्थिति में स्मृतियाँ रचती हैं उपस्थिति का सौंदर्यशास्त्र स्वप्न चुपचाप रचते हैं तुम्हारी अनुपस्थिति उपस्थिति का अनुपम आत्मीय लास्य चाँद की चाँदनी की तरह देह की काँच के भीतर पसर जाता है तुम्हारा धवल प्रेम चाँद की विलक्षण नरमाहट अनपेक्षित दक्षतापूर्वक पहुँचती है    पृथ्वी तक मन के खेतों के बीच शब्दों की पगडंडियाँ दूर तलक उनका भविष्य बाँचती हुई दौड़ जाती है मनतलक तुम्हारी नसों के रक्त से अपनी छवि को छूती हूँ     अपने रक्त में तुम्हारी छवि में पूरा विश्व उग आता है     मुझमें विश्व में

।। प्रतीक्षा के स्वप्न बीज ।।

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प्रतीक्षा में बोए हैं  स्वप्न बीज उड़ते समेल के फाहों को मुट्ठी में समेटा है विरोधी हवाओं के बीच प्रतीक्षा में मन के आँसुओं ने धोई है मन की चौखट और आँखों ने प्राणवायु से सुखाई है जमीन अधरों ने शब्दों से बनाई है   अल्पना और धड़कनों ने प्रतीक्षा की लय में गाए हैं     बिलकुल नए गीत प्रतीक्षा में होती हैं    आहटें पाँवों की परछाईं हथेलियों की गुहारती पुकार आँखों के आले में प्रिय के आने का उजाला समाने लगता है और एक सूर्य-लोक खिल उठता है प्रतीक्षा के सन्नाटे में कौंधती है आगमन अनुगूँज और शून्यता में तिर आती हैं पिघली हुईं तरल आत्मीयता की लहरें कि समाने लगता है अपने भीतर स्मृतियों की परछाईं का अमिट संसार आँखों में साँसों में पसीज आई हथेली में आँखों की पृथ्वी पर होती हैं     तुम्हारी मन ऋतुएँ नक्षत्र से निरखते हैं तुम्हारे नयन निष्पलक चुपचाप परखती हैं     आँखें अलौकिक प्रभालोक तुम्हारे प्रणय का अक्षय आकाँक्षा वलय । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। वियोग सुख ।।

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तुमसे छुपाकर जीती हूँ तुम्हारा वियोग आवाज में ही दबा ले जाती हूँ रुलाई लिखने से पहले शब्दों से खींच लेती हूँ बिछोह की पीड़ा तुम तक पहुँचने वाले सूर्य और चंद्र में चमकने देती हूँ चूमा हुआ प्रेम बिछोह के दर्द को घोलती हूँ रक्त भीतर कि आँख में जन्म न लें आँसू ओठों की तड़प को अपनी ही उँगलियों से मसलती रहती हूँ बेबसी के दारुण क्षणों में फिर भी ओंठ सिसकते ही रहते हैं साँस की तरह अपने प्रेम के बिछोह में ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह  से)

।। धुन ।।

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घर में तुम घर की तरह बचे हो मुझमें      मेरी तरह तुम्हारे जाते हुए पाँवों को नहीं रोक सके आँख के आँसू पर, तुम्हारी परछाईं बनी है मुझसे तुम्हारे साथ तुम्हारी खामोशी में समाया है      मेरा मौन जैसे    तुम्हारे शब्दों में मेरे शब्द तुम्हारी आवाज में मेरी धुन तुम्हारे जूतों को तुम्हारे पाँव के बिना रहने की आदत नहीं पर पाँव भीतर होने पर भी उनका 'जी' नहीं भरता है तुम्हारी प्रतीक्षा में सिकुड़ रहे हैं हमकदम होने के लिए तुम्हारी कंघी को फिरा लेती हूँ अपने केशों में तुम्हारी सहलाती उँगलियाँ हैं       वे तुमसे उतरे हुए कपड़े रहते हैं मेरे सिरहाने तुम्हारी अनुपस्थिति को भरती हूँ तुम्हारी सुगंध के वक्ष से जिस पर मेरा सिर महसूसता है तुम्हें और सुगंध से मिलता है रास्ता तुम तक पहुँचने के लिए घनेरी रात में तुम्हारी छोड़ी हुई हर चीज को छूती हूँ कि जैसे अपने स्पर्श में से बचे हो तुम हर वस्तु में कि तुम्हारे देखे गए आईने में आदमकद देखती हूँ खुद को अहल्या की तरह पुनर्प्राणार्जि

।। देह-विदेह ।।

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दो गोलार्द्धों में बाँट दिए जाने के बावजूद पृथ्वी भीतर से कभी दो ध्रुव नहीं होती मेरी तुम्हारी तरह तुम्हारी साँसें हवा बनकर हिस्सा होती हैं मेरे बाहर और भीतर की प्रकृति तुमसे सृष्टि बनती है । तुम्हारा होना मेरे लिए रोशनी है । तुम्हारा वक्ष धरती बनकर है मेरे पास तुम्हारे होने से पूरी पृथ्वी मेरी अपनी है घर की तरह चिड़ियों की चहक में तुम्हारे ही शब्द हैं मेरी मुक्ति के लिए मुक्ति के बिना शब्द भी गले नहीं मिलते हैं मुक्ति के बिना सपने भी आँखों के घर में नहीं बसते हैं । मुक्ति के बिना प्रकृति का राग भी चेतना का संगीत नहीं बनता है । मुक्ति के बिना आत्मा नहीं समझ पाती है प्रेम की भाषा मुक्ति के बिना सब कुछ देह तक सीमित रहता है मुक्ति में ही होती है देह   विदेह । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। एकांत रातें ।।

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समय की हवाओं की धार उतारती हैं उँगलियों से नाखून और याद आती है तुम्हारी हथेली की पृथ्वी जो मेरे कटे हुए नाखूनों को भी अपनी मुट्ठी की मंजूषा में सहेज रखना चाहती थी तुम्हारी हथेली की अनुपस्थिति में पृथ्वी छोटी लगती है बहुत छोटी जहाँ मेरे टूटे नाखून को रखने की जगह नहीं है न ओठों के शब्द और न आँखों का प्यार जिन हथेलियों में सकेल लिया करती थी भरा-पूरा दिन एकांत रातें बची हैं   उनमें करुण बेचैनी सपनों की सिहरनें समुद्री मन की सरहदों का शोर तुम्हारी आँखों में सोकर आँखें देखती थीं भविष्य के उन्मादक स्वप्न तुम्हारे वक्ष में सिमटकर अपने लिए सुनी है समय की धड़कनें जो हैं सपनों की मृत्यु के विरुद्ध । ('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अनोखे शब्द ।।

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समुद्र-पार की उड़ान से पहुँचा है भारी हैं     उसके पंख अलौकिक है     प्रेम जो समर्पित होता है समुद्री दूरी के बावजूद प्रतीक्षित और विरल जीवन-स्पर्श के लिए तुम्हारे-अपने संबंधों के लिए रची है मैंने एक अनूठी भाषा जिसके शब्द रातों की तनहाई और नींदों के सपनों से बने हैं खुली आँखों में सपनों का घर है आँखों के पाँव पहचानते हैं हृदय का रास्ता काँच हुई देह पर गिरते हैं     ओठों के बूँद-शब्द पिघलता है     रंगों का सौंदर्य अकेलेपन की आग में स्मृतियों की गीली रेत पर चलती हैं      अधीर आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ वेनेजुएला के राष्ट्रीय पुष्प-वृक्ष 'ग्रीन हार्ट' का पर्याय नहीं है जो सिर्फ एक दिन के लिए हवाओं में खिलता है अपनी साँसों में और जीता है जीवन सौंदर्य-बोध के लिए तुम्हारा     अपना प्रेम अलौकिक प्रणय-नदी का लौकिक तट तटबंध हैं         मैं और तुम पूर्णिमा का सौंदर्यबोधी चाँद मन भीतर पिघलकर रुपहला समुद्र बनकर समा जाता है आँखों की पृथ्वी में अपनी जगह बनाते हुए महासागर की तरह