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फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। संसद-सवाल ।।

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पार्लियामेंट प्रश्न पी हुई सिगरेट का टुकड़ा हैं  जिसका धुआँ जी लिया है संसद के फेफड़ों ने । चिटखटी हुई चिनगारी की तरह संसद से दौड़ते हैं सवाल मंत्रालय के सचिवों की सुविधाभोगी मेजों से । संसद के फूले हुए नथुनों से छोड़ी हुई साँस की तरह फुफकारते हुए दौड़ते हैं पार्लियामेंट प्रश्न दूर-दूरस्थ राजदूतावासों की फैक्स मशीन और कम्प्यूटर तक का हो जाता है जीना हराम । पार्लियामेंट क्वेश्चन संसद सवाल चुने हुए लोगों की अमन चैन की व्यवस्था में खलल डालने वाले कारकों के विरुद्ध होती है एकल कार्यवाही । संसद के सांसद वातानुकूलित कक्षों की तरह वातानुकूलित रखना चाहते हैं अपना दिल-दिमाग और उसकी धड़कनें । आम जनता के आँसू के पारे को अपने थर्मामीटर का हिस्सा नहीं बनाना चाहते हैं वे । आम जनता के जीवन-वन में पल रहे जंगलराज से बेफिक्र देश की चिंता से बेखबर विश्व चिंताओं के साथ खड़े दिखना चाहते हैं वे । देश के प्रतिनिधि नेता विदेश और विश्व की चिंता में घुले जा रह

दो कविताएँ

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  ।। काला कोट ।। कविताओं ने पहन लिया है काला कोट शब्दों का समय के विरोध में कविता का हर शब्द हालात के मातम में मौन । कुछ लोग लील लिए हैं समय के प्रतिरोधी सच्चे शब्दों को बहुत कम शब्द बचे हैं जो बोलते हैं अपने अर्थ शब्दों की मौलिक प्रकृति के साथ । ।। सच की किताब ।। किताबों में होते हैं शब्द और शब्दों के पहाड़ प्रवाहित होता है नदियों-सा अर्थ जीवन के प्रश्नों की तृप्ति के लिए । किताबों में है विश्व और विश्व के बाहर का चमकता ब्रह्माण्ड । किताबों में हैं कहानियाँ और कहानियों में हैं आदमी के किताब हो जाने का इतिहास ।

।। शब्द-प्राण ।।

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शब्द छूते हैं देह और देह जीती है शब्द । प्रेम में प्राणवान होती है ऐसे ही देह और ऐसे ही शब्द ।

।। विश्व-भाषा ।।

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चिड़िया किसी देश की भाषा नहीं बोलती है नहीं बाँटना चाहती है वह अपना आकाश चिड़िया की आँखों में आँसू नहीं होते हैं क्योंकि वह सदा होती है अपनी जमात के साथ । चिड़िया कभी विकलांग नहीं होती है क्योंकि नहीं जीतना चाहती है वह कोई युद्ध चिड़िया  अपने बच्चों का नाम नहीं रखती है नहीं बाँटना चाहती है वह उन्हें किसी धर्म में चिड़िया कुछ नहीं छीनती है वह सिर्फ उड़ना चाहती है उड़ती रहती है धूप …बरसात … तूफान में चिड़िया कभी, कुछ बटोर नहीं रखती है न अपना दिन न अपनी रात न अपना घोंसला न अपने शावक उसकी कोई रसोई नहीं होती न कोई भंडार-घर पूरी पृथ्वी उसका अपना अनाज-घर है उड़ान भरती चिड़िया है आकाशकुसुम रंगीन और सुंदर नभ-पुष्प ।

।। स्वत्व ।।

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शताब्दियों की यात्रा करते हुए थक चुके हैं शब्द ! शब्दों को नहीं दिखता है           ठीक-ठीक । नई शताब्दी की चकाचौंध से धुँधला गई हैं आँखें पुरानी शताब्दियों के युद्ध के खून से लाल हैं शब्द की आँखें युद्ध नई शताब्दी के मठाधीशों का रंजक नशा है । डरती हैं शब्दों की आँखें सत्ता से आँख मिलाने में और सहमती हैं आँसू भरी आँखों से अपनी छाती मिलाने में ।

।। पृथ्वी ।।

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पृथ्वी अकेली औरत की तरह सह रही है जीने का दुःख । भीतर से खँखोर रहे हैं लोग ऊपर से रौंद रहे हैं लोग कुछ लोग अपने उन्मादक आनंद के लिए सजा और सँजो रहे हैं पृथ्वी जैसा अकेली स्त्री के साथ                  करते हैं सलूक । सब देख रहे हैं तहस-नहस पृथ्वी भी देख रही है क्रमशः अपना विध्वंस फिर भी अनवरत अपनी ही शक्ति से कभी अग्नि कभी वर्षा कभी तूफ़ान कभी बाढ़ कभी अकाल से रचाती रहती है संतुलन विध्वंसकारी शक्तियों के विरुद्ध । बचाए रखती है अपनी हरियाली                      अपनी वर्षा                      अपनी शीतलता                      अपनी उर्वरता                      अपनी पवित्रता                      अपनी अस्मिता एक अकेली पृथ्वी एक अकेली स्त्री की तरह ।

।। कोहरा ।।

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कोहरा धुँआई अँधेरा हवाओं में घुला अपने में हवाएँ घोलता रोशनी को सोखता कि मौत-सी लगामहीन तेज भागती कारें थहा-थहा कर आंधरों की तरह बढ़ाती हैं अपने पहिये के पाँव अंधे की लाठी की तरह गाड़ियों की हेडलाइट देखते हुए भी नहीं देख पाती है कुछ । कोहरे में डूबे हुए शहर की रोशनी भी डूब जाती है कोहरे में सूर्यदेव भी थहा-थहा कर ढूँढते हैं अपनी पृथ्वी । धरती पर अपनी रोशनी के पाँव धरने के लिए ठंडक ! कोहरे की चादर भीतर सुलगाती है अपना अलाव सुलगती लकड़ी के ताप से आदमी जला देना चाहता है कोहरे की चादर । पक्षी कोहरे में भीगते हुए भी फुलाए रखते हैं अपने भीतरिया पंख कोहरे का करते हैं तिरस्कार पंखों की कोमल गर्माहट से कोहरा छीन लेता है पक्षियों की चहचहाहट का मादक कोलाहल स्तब्ध गूँजों और अंधों की तरह सिकुड़े हुए सिमटे मौन की तरह । वे खोजते हैं कोहरे के ऊपर का आकाश और अपने लिए सूर्य रश्मियाँ क्योंकि रोशनी के कण आँखों की भूख के लिए उजले दाने हैं जिसस

'इनिका' कहानी का एक अंश

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पुष्पिता अवस्थी जी की कहानियों में जो संसार है, उस संसार का आशय संबंधों की छाया या प्रकाश में ही खुलता है, अन्यथा नहीं । संबंधों के प्रति यह उद्दीप्त संवेदनशीलता उन्हें अप्रत्याशित सूक्ष्मताओं में भले ही ले जाती हो, उनको लेकिन ऐसा चिंतक-कथाकार नहीं बनाती जिसका चिंतन अलग से हस्तक्षेप करता चलता हो । इसका आभास उनकी 'इनिका' शीर्षक कहानी के यहाँ प्रस्तुत इस एक अंश में पाया जा सकता है । 'इनिका' मेधा बुक्स से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह 'जन्म' में संगृहीत है ।  'इनिका के पति को अपने ही विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग की एक शिक्षिका से प्रेम था । स्वयं वह समाज-विज्ञान विभाग में अध्यक्ष थे और जल्दी ही अपनी संयुक्त गृहस्थी शुरू करना चाहते थे । इनिका से बगैर उसकी इच्छा जाने उन्होंने तलाक का प्रस्ताव रखा था । साथ ही अपने इतर संबंधों के सघनता की जानकारी भी दी थी । यह सब सुनकर इनिका सन्न रह गयी थी । लेकिन जहाँ प्रेम ही न हो वहाँ संबंधों को बनाये और जिलाये रखने की जिद करना कहाँ तक उचित है । इनिका के पति ने हमेशा अपनी इच्छाओं की जिद की और उसे अड़कर मनवा