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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पुष्पिता जी की एक कविता का हस्तलिखित ड्रॉफ्ट

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'जंगल जग के मानव प्राणी' शीर्षक कविता यहाँ इस ब्लॉग में पहले प्रस्तुत की जा चुकी है । पुष्पिता जी की इस कविता का एक बड़ा हिस्सा उनकी हस्तलिपि में ही हमें प्राप्त हुआ, तो उसे यहाँ प्रस्तुत करने का लोभ हम संवरण नहीं कर पाए हैं । किसी रचनाकार की रचना को उनकी हस्तलिपि में देखने/पढ़ने का अपना एक पाठकीय सुख तो होता ही है, रचनाकार की रचनात्मक सक्रियता को जानने/पहचानने का एक अवसर भी होता है । दरअसल इसीलिये पुष्पिता जी की इस कविता को आधी-अधूरी होने के बावजूद हम यहाँ दोबारा - लेकिन उनकी हस्तलिपि में दे रहे हैं ।  

।। सोन चिरैया ।।

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'पोयसी' सूरीनाम की सोन चिरैया सबाना रेत-माटी से स्वर्ण को खोद निकालने वाली मजदूरों से आँख चुरा चुरा ले जाती है भूगर्भी दमकता स्वर्ण जैसे किंगफिशर पानी से चुरा लेता है मछली । सोन चिरैया 'पोयसी' के  चुराए स्वर्ण के टुकड़ों से चुराती हैं महिलाएँ स्नेह-स्वर्ण । अपने प्रवासी प्रिय की मन की अँगूठी के लिए 'हीरे' की सगाई-अँगूठी एक जगमगाती धवल तारिका ।

।। यूरोप में साइकिल ।।

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यूरोप को चलाते हैं युवा समय का पहिया दौड़ता है यूरोप में बहुत तेज पहिये के ऊपर हैं जो  वे आगे और बढ़े हुए । गर्भस्थ शिशु अपना आकार लेता है साइकिल चलाती अपनी माँ की देह-भीतर गर्भ में रहते हुए ही जैसे जान लेता है साइकिल जीने का सुख । स्ट्रेचर के पहिये से पहुँचता है ऑपरेशन थियेटर में पहिये पर आता है आँखें मींचे मुट्ठी भींचे समय के पहिये पर धड़कनें और साँसें दौड़ने लगती हैं उसकी अकेले ही चाहे वह माँ की छाती से लगा हो या अपने बास्केट-बेड में ऊँघता हो चिहुँकता हो । पहिये से ही सीखता है धरती पकड़ना और दौड़ना माँ के साथ चार पहिये के बेबी-स्ट्रोलर पर बैठ घूम लेता है अपना देश । उसकी आँखों की मुट्ठी खुलने लगती है अपनी हथेलियों के भीतर जहाँ से वह एक साथ पकड़ना सीखता है माँ की हथेली और मातृभूमि का प्यार । बच्चे अपने पाँव से पकड़ लेते हैं साइकिल का पाइडल और दो पहियों में दौड़ते हैं स्वयं सड़क पर ट्रैफिक को रास्ता देने के लिए पीछे एक लंबी डं

।। कविता का विश्वास ।।

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संबंधों में कविता की तरह जन्म लेता है विश्वास और ठहर जाता है आस्था की सुगंध बनकर । अंत में जीवन में ठहर जाता है कविता बन कर ।

पुष्पिता अवस्थी जी को 'वातायन कविता सम्मान'

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लंदन के हाऊस ऑफ पार्लियामेंट में 'वातायन' द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में पुष्पिता अवस्थी जी को 'वातायन कविता सम्मान' दिया गया । इस आयोजन को लेकर तथा पुष्पिता जी की कविता को लेकर लंदन और नीदरलैंड के कई अख़बारों और पत्रिकाओं में रिपोर्ट्स प्रकाशित हुईं हैं । ऐसी ही एक प्रकाशित रिपोर्ट की कतरन हमें मिली है, जो यहाँ प्रस्तुत है : 

।। अपने ही कंधों पर ।।

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बहुत बेचैन रहते हैं सपने दिमाग के कैदखाने में जकड़ गए हैं सपने । युद्ध की ख़बरों से सैनिकों का खून फैल गया है मन-मानस की वासंती भूमि पर । बम विस्फोटों के रक्त रंजित दृश्यों ने सपनो के कैनवास में रँगे हैं खूनी दृश्य अनाथों की चीख पुकारों से भरे हैं कान संगीत की कोई धुन अब नहीं पकड़ते हैं कान । छल और फरेब की घटनाओं ने लील लिया है आत्म विश्वास एक विस्फोट से बदल जाता है शहर का नक्शा विश्वासघात से फट जाता है संबंधों का चेहरा कि जैसे अपने भीतर से उठ जाती है अपनी अर्थी अपने ही कंधों पर ।

।। नदीन का चाँद ।।

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सूर्यास्ती सुनहरी साँझ की गोद में खेलती ढाई साल की रुपहले बालों और नीली आँखों वाली गुलाबी बच्ची किलककर अपने पिता की छाती से हिलगकर उनकी आँखों में आँखें डाल पूछती है चाँद कहाँ है ? जैसे ढूँढ़ आई हो अपने पूरे घर-भीतर घर से बाहर की झाड़ी-बीच झाँक आई हो कई बार घर के स्वीमिंग पुल से भी डूबे चाँद को निकालने की की होगी जैसे पुरजोर कोशिश । ढाई बरस की डच-भाषी बच्ची की यादों की रंगों में बसा है चाँद जैसे पूर्वजन्म में चंद्रलोक की परी थी कोई चाँद उसका घर हो आज भी सारे रिश्तों के बावजूद चाँद से रिश्ता है अटूट चाँद उसका दोस्त उसे खिलाता है आकाश से और वह खिलखिलाती है अपने दाँतों में चाँद की चाँदनी समेट । दुनिया भर के बच्चों की आँखें लगी हैं टी वी या कम्प्यूटर स्क्रीन के छलावी खेलों की चकाचौंधी दौड़ में अपनी स्मृतियों के सिंहासन में बैठाया है चाँद को अपने मनकुमार की तरह । याद आती है अपने बचपन की लोरी नानी अपनी थपकियों से गाकर सुलाती थी कि उनके कंठ में चाँद सो जाता था पर थपकियों की गूँज में होती थी चाँद के लिए

।। प्रतीक्षा में प्रार्थना ।।

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                                              प्रतीक्षा प्रार्थना में लीन है प्रार्थना तपस्यारत है सदिच्छाओं के स्पर्श के लिए सर्वसुख की देह में बसा है सर्वहित जैसे वह ही है प्राणतत्व संपूर्ण ब्रह्माण्ड में ।