।। ऋतुओं की हवाएँ ।।
सुनती हूँ सुनकर छूती हूँ तुम्हें स्वप्न स्वर्गिक वाद्ययंत्र बनकर गूँजते हैं बहुत भीतर रचते हैं संगीत का अंतरिक्ष तुम्हारे ओंठों से छूटे हुए शब्दों को बचाकर सुना है तुम्हें तुमसे ही तुम्हें छुपाकर गुना है तुम्हें एकांतिक मौन-विलाप सुदूर होकर भी अपनी धड़कनों के भीतर महसूस किया है उसे जैसे नदी जीती है अपने भीतर पूर्णिमा का चाँद दीपित सूर्य झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है ऋतुओं की हवाएँ अपनी तृप्ति के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)