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।। ऋतुओं की हवाएँ ।।

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सुनती हूँ सुनकर छूती हूँ      तुम्हें स्वप्न स्वर्गिक वाद्ययंत्र बनकर गूँजते हैं     बहुत भीतर रचते हैं      संगीत का अंतरिक्ष तुम्हारे ओंठों से छूटे हुए शब्दों को       बचाकर सुना है तुम्हें तुमसे ही      तुम्हें छुपाकर गुना है तुम्हें एकांतिक मौन-विलाप सुदूर होकर भी अपनी धड़कनों के भीतर महसूस किया है      उसे जैसे नदी जीती है     अपने भीतर पूर्णिमा का चाँद दीपित सूर्य झिलमिलाते सितारे और चुपचाप पीती है ऋतुओं की हवाएँ अपनी तृप्ति के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। पोर-पोर में ।।

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चित्त चुपचाप ही स्मृति-पृष्ठों पर लिखता है     अभिलेख मौन ही       स्पंदन                 धड़कन                 बँधाव और           रचाव की तिथियाँ चुपचाप भोगता है     प्रेम प्रेम की आँखों का प्रतिबिम्ब अपनी आँखों में मुस्कुराहट का सुख अधरों में स्पर्श का अमृत अपनी हथेलियों में और प्रिय का प्रियतम अहसास पोर-पोर में कि जैसे आत्म-सुख से आह्लादित हो देहात्मा भी ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। अमिट ।।

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प्रेम की कोई उम्र नहीं सभी कहते हैं कोई नहीं आँक सकता है प्रेम की औसत आयु ... प्रेम सिर्फ़ उम्र-भीतर रचाने आता है रहस्यपूर्ण अनगिनत अनुभूतियाँ अपने अनमिट चिन्ह जो ईश्वरीय हथेली की विशिष्ट स्पर्श-छाया है हृदय में अंकित अमिट और अक्षय अधर और स्पर्श मौन और वाणी देह-भीतर गढ़ते हैं    नवल प्रणय गात जिसे हम 'ईश्वर' पुकारते हैं ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

चार छोटी कविताएँ

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।। बहुत चुपचाप ।। प्रेमानुभूति का सुख जीवन-सुख नवस्वप्न का साक्षात-सदेह जन्म अपने ही भीतर प्रिय के विमुख होने का विषाद जैसे    मृत्यु से साक्षात्कार अपने ही भीतर विलखती है      अपनी आत्मा पूरी देह जीती है      करुण-क्रंदन बहुत चुपचाप ।। प्रिया ।। अधरों की विह्वल विकलता में अपनी ही उँगलियों से मसलती रहती है ओंठों की दारुण-तड़प फिर भी ओंठ सिसकते रहते हैं साँस की तरह अपने प्रिय के बिछोह में ।। प्रेमधुन ।। तुम्हारी     ध्वनि में सुनाई देती है अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि तुम्हारे शब्दों की बरसात में भीगती है       आत्मा आत्मा जनित प्रेम में होती है प्रेम की पवित्रता और चिरंतरता ... ... बजती है     प्रेम धुन रामधुन सरीखी लीन हो जाने के लिए ।। ताप ।। धूप में सूर्य हममें प्रेम में प्रिय तितलियाँ भरती हैं    रंग आँखों में और आँखें आँजती हैं प्रेम ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

तीन कविताएँ

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।। घुल जाती है ।। प्रणय-दृष्टि ही नेह-देह है जहाँ नहाती हैं उमंगें चित्त की अंतः सलिला में घुल जाती है देह नयनों के सरोवर में डुबकियाँ लगाकर मन-देह हो जाती है     कभी ग्लेशियर कभी तप्त लावा कभी कैलाश शिखर और अंततः प्रणय का अक्षय शिवलिंग आराधनारत प्रेम में प्रिय की अक्षत सिद्धियों के लिए ।। रोज़ मिलते हैं ।। रोज़ मिलते हैं एक दूसरे से आवाज़ और ध्वनि में होते हैं    आलिङ्गित-आत्मलीन शब्दों की हथेलियों में होती हैं    हम दोनों की हथेलियाँ संवाद करते हैं     गलबहियाँ बावजूद इसके शब्दों से अधिक हम सुनते हैं    एक-दूसरे की साँसें और समझते हैं अर्थ शब्दों की धड़कनों का ।। अंतस में ।। सूर्य से सोख लिए हैं रोशनी के रजकण अधूरे चाँद के निकट रख दी हैं तुम्हारी स्मृतियाँ स्वाति बूँद से पी है तुम्हारी निर्मल नमी वसंत-बीज को उगाया है    अंतस में कहीं से मन झरोखे को थामे हुए तुम रहते हो       मेरी अंतर्पर्तों में स्वप्न-पुरुष होकर मेरी अंतरंग यात्राओं के आत्मीय स

।। नवातुर गर्भिणी ।।

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वह ख़ुश है अपनी देह के जादु से भरकर इठलाती है   रह रह कर हँसी में रचाती है अनदेखी ख़ुशी का सुख कि कुछ माह बाद निज हथेलियों में खिलाएगी अपने प्रणय की नवजात हथेलियाँ अपनी देह से जन्मी आँखों में लखेगी मन के कोमल स्वप्न हथेलियों को भरेगी अपने शिशु की मुट्ठियों से निज ओंठों से चूमेगी उसकी अधर-सी देह अपने वक्ष से लगाएगी नव-आत्म शिशु की पुलकित देह वह आह्लादित है कि उसकी स्त्री देह प्रेम में ईश्वर हो गई है ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। हथेली ।।

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  अकेलापन    पतझर की तरह उड़ता फड़फड़ाता है प्रिय की तस्वीर से उतरता है स्मृतियों का स्पर्श देह मुलायम होने लगती है चाहत की तरह हथेलियों से हथेलियों में उतरती है आत्मीयता की छाया प्रेम की भाषा प्रेम है सारे भाष्य से परे प्रणय एकात्म अनुभूतियों की अविस्मरणीय दैहिक पहचान है देहाकाश में इंद्रधनुषी इच्छाओं के बीच तुमसे कहने की सारी बातें वियोग में घुल कर बन जाती हैं    अक्ष और पोंछती हैं  अकेलेपन के चिन्ह (भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

पुष्पिता की आलोचना पुस्तक

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'आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष' पुष्पिता अवस्थी की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है, जिसमें जैसा कि शीर्षक से ही आभास मिलता है कि - हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्षों की गहन पड़ताल की गई है । पुष्पिता इस पुस्तक में आधुनिक हिंदी कविता और काव्यालोचना का नया सौंदर्यशास्त्र सृजन करने के क्रम में समीक्षा की भाषा के अलावा कई बुनियादी सवालों से भी दो-चार हुई हैं : यथा, कविता अपनी रचना में ही कैसे अपना नया काव्यशास्त्र रचती-रचाती है ? कविता और काव्यालोचना का सौंदर्य कैसे बनता है ? जीवनानुभवों और मनस्तत्वों की भाषा में कैसी बुनावट है ? क्या कारण है कि तुलसी-जायसी के व्याख्याता आचार्य शुक्ल कबीर से सहानुभूति/सह-अनुभूति नहीं महसूस करते ? आदि-इत्यादि । उल्लेखनीय है कि काव्यालोचना के सौंदर्यशास्त्र और भाषा के वर्तमान परिदृश्य को उर्वर बनाने में एक साथ कम से कम तीन पीढ़ियाँ सक्रिय दिखाई देती हैं, जिनमें विभिन्न तरह की प्रेरणाएँ और प्रक्रियाएँ देखी जा सकती हैं । काव्य-आलोचना का अद्यतन परिदृश्य विभिन्न दृष्टियों के ताने-बाने से निर्मित है, जिसे पुष्पिता ने अपनी इस आलोचना पुस्तक म

।। जैसे मैं तुममें ।।

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सूर्य की परछाईं में होता है     सूर्य लेकिन ... प्रकाश के प्रतिबिम्ब में होता है     प्रकाश लेकिन ... सूर्य अपने ताप से बढ़ाता है      अपनी ही प्यास नहाते हुए नदी में पीता है नदी को ... समेट लेती है      नदी अपने प्राण-भीतर सूर्य को जिसमें जीती है प्रकाश की ईश्वरीय प्रणय-देह पृथ्वी में समा जाती है    नदी धरती का दुःख कम करने के लिए जैसे मैं तुममें ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। नक्षत्र के शब्द ।।

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तुम्हारी हस्तलिपि में महसूस किया है      आँखों ने हृदय का ताप तुम्हारी लिखावट में हथेलियों ने अनुभव किया है     उँगलियों का सिहरता स्पर्श तुम्हारे कंधों पर मेरी हथेली है बग़ैर तुम्हें छुए बिना मेरे कहे विश्वास किया है     आँखों ने तुम्हारे लिखे को बिना कहे विश्वास किया है      आँखों ने तुम्हारे लिखे में ढूँढ़ी हैं       तुम्हारी उँगलियाँ महसूस किया है उनका सिहरता कम्पन जैसा     किसी अनुबंध पर हस्ताक्षर करते समय कुछ समय के लिए ठहरती हैं उँगलियाँ अपनी धड़कनों की धधकन सुनने के लिए प्रिय को लिखे शब्दों में उतरता है      अंतस के नक्षत्र का उजाला उन शब्दों को नक्षत्र में तब्दील करने के लिए ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)

।। मौन प्रणय ।।

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मौन प्रणय शब्द लिखता है एकात्म मन उसके अर्थ मुँदी पलकों के एकांत में होते हैं     स्मरणीय स्वप्न प्रेम अपने में पिरोता है    स्मृतियाँ स्मृतियों में प्रणय प्रणय में शब्द शब्दों में अर्थ अर्थ में जीवन जीवन में प्रेम प्रेम में स्वप्न प्रणय रचे शब्दों में सिर्फ़ प्रेम होता है जैसे    सूर्य में सिर्फ़ रोशनी और ताप ('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)