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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

।। ओठों पर शंख ।।

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काग़ज़ पर शब्द जैसे ओठों पर शंख । मेरा मन तुम्हारी स्मृतियों की जीवन्त पुस्तक । ईश्वर ने हम-दोनों में बचाया है प्रेम और हम-दोनों ने प्रेम में ईश्वर ...।

लय : विलय

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प्रेम में साँसें समझ पाती हैं साँसों की भाषा जो देह की सिहरन से लेकर कपोलों की लाली तक एक है । मन की देह के बीच अपनी लिपि में अपने लय में अपने शब्दों में अपने अर्थ में लय होगी विलय । एकांत में राग की सुगंध और सुगंध का अंगराग । अपनी गंगा में जीती हूँ तुम्हारी यमुना जैसे अपने कृष्ण में तुम मेरी राधा । प्रणय चाहता है अपनी देह-गेह में प्रिय का हस्ताक्षर संवेदना की जड़ें पसरती जाती हैं भीतर-ही-भीतर कि देह-माटी पृथ्वी के समानांतर अपना वसंत जीने लगती है । प्रणयाग्नि से तपी देह हो जाती है स्वर्ण-कलश अमृत से पूर्ण । प्रणय देह की ईश्वरीय चौखट पर समर्पित करता है अपना सर्वस्व जैसे विलीन होते हैं पंच तत्वों में पंच तत्व ...।

।। आत्मीय शब्द ।।

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ओठों को बोलने से पहले शब्द का अर्थ चाहिए । ऊँगलियों को स्पर्श से पहले आवेग की गति चाहिए । ह्रदय को धड़कने से पहले देह चाहिए । पाँव को चलने से पहले रास्ता चाहिए । रास्ते से पहले तक घर जैसी आत्मीय मंज़िल चाहिए । मंज़िल से पहले जीवन चाहिए । जीवन से पहले ज़िंदगी की जरूरत चाहिए । जरूरत से पहले जीवन की ज़िंदगी चाहिए । जैसे जीने के लिए प्यार का विश्वास और उसकी शक्ति चाहिए; जैसे बीज को पेड़ बनने से पहले धरती, सूरज और पानी चाहिए; वैसे ही अपने से पहले मुझे तुम चाहिए । तुम्हारे तुम से ही मेरा 'मैं' बनेगा तुममें जीने के लिए तुमसे जीने के लिए ।

।। मधु घर ।।

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तुम्हारे होने के बाद अपने भीतर सूँघ सकी खाली जमीन की रूँधी-कसक जहाँ उग आया है बसंत मह-मह आकाश और उड़ान की फड़फड़ाहट । तुम्हारे शब्दों ने मेरे भीतर खोला पारदर्शी निर्झर प्यास के विरुद्ध ...। तुम्हारे होने भर से जान सकी फूलों में कहाँ से आती है सुगंध कैसे आती है कोमलता धूप उन्हें कैसे तबदील करती है रंगमय मन कैसे बदल जाता है वृक्ष में तितली कहाँ से लेती है लुभावने रंग मधुमक्खी क्यों बनाती है शहद का घर साख में टाँगकर ...। तुम्हारी आँखों में खुद को देखने के बाद जाना नदी क्यों बहती रहती है रात-दिन बगैर रुके समय की तरह ...।

।। बादल-बूँदें ।।

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बादल-बूँदों की तरह तुम हो मुझमें इन्द्रधनुषी रंगों की तरह । मछलियाँ गाती हैं सूर्यागमन की अगवानी का गान जैसे - मैं तुम्हारा प्रणय । हवाएँ चुपचाप घूमती हैं इधर से उधर प्यार की सुगंध के लिए खोजती हैं तुम्हें ।

।। उद्घोष ।।

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साँसों की हवाओं में धीरे-धीरे रम गया है प्रेम का मौन जैसे प्रकृति जीती है सन्नाटा संगम तट पर हथेलियों ने चुनी हैं कुछ सीपियाँ और मन में तुम्हारी स्मृतियाँ प्रेम के नवोन्मेष के लिए । सूर्य स्पर्श करता है जैसे प्रपात कुंड झरना सरिता वैसे ही तुम हमें बहुत दूर से अंतरंग स्पर्श । चाँद जैसे स्पर्श करता है उष्ण पृथ्वी तपी नदी सुरम्य घाटी उन्नत वृक्ष-शिखर वैसे ही मैं तुम्हें समुद्र-पार से छूती हूँ तुम्हारे मन की धरती अदृश्य पर दृश्य । जैसे आत्मा स्पर्श करती है परमात्मा और परमात्मा थामे रहता है आत्मा दो परछाईं (जैसे अगल-बगल होकर) एक होती हैं वैसे ही तुम मुझमें मैं तुममें । प्रणय की साक्षी है प्राणाग्नि अधरों ने पलाश-पुष्प बन तिलक किया है प्रणय भाल पर मन-मृग की कस्तूरी जहाँ सुगन्धित है सांसों ने पढ़े हैं अभिमंत्रित सिद्ध आदिमंत्र ...।

।। मौन ध्वनि ।।

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सारी विध्वंसात्मक कोशिशों के बावजूद मेरे वक्ष का कोई शब्द बिगड़ नहीं पाएगा । अनुपस्थिति में भी धड़कनें सुनेंगी सही-सही शब्दों की सार्थक अनुगूँज बिना क्षितिज के दिवस होंगे न सुबह होगी न शाम होगी चिड़ियों की पुकार में घुलेंगे प्रेम के शब्द उठाएँगे तुम्हें तुम्हारे सर्वस्व के साथ सर्वस्व के लिए । चह-चह में गूँजेगी राग-भैरवी न ओस ... न आवाज ... लेकिन मेरा 'मौन' रहेगा प्रेम के साथ प्रेम की तरह चुप अंतहीन रिक्तता को भरने के लिए ।

।। परछाईं ।।

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सूर्य की परछाईं में होता है सूर्य लेकिन ... प्रकाश के प्रतिबिम्ब में होता है प्रकाश लेकिन ... सूर्य अपने ताप से बढ़ाता है अपनी ही प्यास और नहाते हुए नदी में पीता है नदी को नदी समेट लेती है अपने प्राण-भीतर सूर्य को और जीती है प्रकाश की ईश्वरीय  प्रणय-देह नदी पृथ्वी में समा जाती है धरती का दुःख कम करने के लिए जैसे मैं तुममें ।

।। ढाई आखर ।।

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कबीर का ढाई आखर समुद्र तट पर साथ-साथ लिखने के लिए चुना है तुम्हें जैसे कोरा सफ़ेद कागज । पूर्णिमा की चाँदनी अपनी आँखों से तुम्हारे ह्रदय की आँखों में रखने के लिए नए सपनों ने चुना है तुम्हें । प्रणय का पिघलता ताप हथेली का दमकता आर्द्र अमृत तुम्हारी हथेली में रखने के लिए चुना है तुम्हें जैसे आत्मा के सहचर हो तुम ।

कुछ भाव दृश्य

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।। राग की आग ।। राग की आग भिजोती है और अपनी आर्द्रता में दग्ध करती है । ।। अर्क ।। देखती हूँ प्रणय के चाँद को एकटक कि चाँदनी का अर्क उतर आए प्रणय की तरह । ।। प्रणयाकाश ।। प्रेम मन को परत-दर-परत खोलता है और रचता है आकाश । ।। हथेली ।। प्रणय हथेली में रखा हुआ मधु-पुष्प है साथ उड़ान की शक्ति रचता है शब्दों में पृथ्वी का कोमलतम स्पर्श सारी क्रूरताओं के विरूद्ध ।

तीन कविताएँ

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।। अंतरंग साँस ।। तुम्हारा प्यार मेरे प्यार का आदर्श है । बादलों से बादलों में क्षितिज की तरह बन गए हैं  हम दोनों । प्यार में समुद्र हुए हम दोनों क्षितिज हैं सागर के । प्यार में समुद्र को पीता है आकाश आकाश को जीता है समुद्र वैसे ही तुम मुझे अपने कोमलतम क्षणों में तुम्हारे प्यार की परिधि मेरी सीमा और संसार ...। ।। थाप की परतें ।। तुम्हारे ओझल होते ही सब कुछ ठहर जाता है सिर्फ साँसें पार करती हैं समय निःस्पृह होकर  तुम्हारे साथ के बाद कोई गीत के बोल नहीं रुकते हैं ओठों पर । तुम्हारी रूमाल की परतों में हथेली के स्पर्श की परतें हैं और वहीं से दिखते हो तुम मुझमें मेरी ओर आते हुए जैसे उदय होता है सूरज । ।। अंतःसलिला ।। प्रेम में खुलती है प्रेम की देह । देह-भीतर अन्वेषित होती है प्रणय अंतःसलिला । कमल-पुष्पों की सुगंध से  सराबोर होता है देह का सुकोमल वन ।

।। तप रही आहुति ।।

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तुम्हारी ह्रदय-अंजलि में प्रणय हथेलियाँ जैसे यज्ञ वेदिका में तप रही आहुति समर्पण के लिए । तुम्हारी आँखों की निर्मल गंगा में आकाशी निलाई के साथ समाता है चेहरा मुझे चूमता हुआ । तुम्हारी आँखें पढ़ती हैं मुझे प्रेम की पहली पुस्तक की तरह । शब्दों में पैठती हैं अर्थ की गहरी जड़ें ऋग्वेद और पुराणों के अर्थसूत्र खोजती हूँ तुम्हारे शब्दों में ...। तुम्हारी मुट्ठी में हर बार मेरी हथेली रख देती है कुछ आँसू वियोग में जनमते हैं अक्षय प्रणय शब्द-बीज ।

।। अनुपम गाथा ।।

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आँखें चाँद से पीती हैं पूरी चाँदनी साँसें रात रानी से खींचती हैं प्राणजीवी सुगंध अस्तित्व धूप से ग्रहण करती है उजास का पूर्ण सुख मेघ से भीज उठती है वसुधा की आत्मा की पोर-पोर वैसे ही हाँ, वैसे ही तुमसे लेती हूँ तुम्हें तुम्हारे अपनेपन को जैसे - अंजलि में सरिता का जल अधरों पर सागर-शंख आँखों में ऋतुओं की गंध वक्ष में स्वप्न के अंतरंग । नदी के द्धीप-वक्ष पर लहरें लिख जाती हैं नदी की हृद्याकांक्षा जैसे - मैं । सागर के रेतीले तट पर भंवरें लिख जाती हैं सागर की स्वप्न तरंगें जैसे - तुम । पृथ्वी के सूने वक्ष पर कभी ओस कभी मेघ-बूँद लिख जाती हैं तृषा-तृप्ति की अनुपम गाथा जैसे - मैं... । 

सूरीनाम देश के भारतवंशियों के संघर्ष की 140 वीं वर्षगाँठ

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सूरीनाम देश के भारतवंशी इस देश में अपनी पीढ़ियों के संघर्ष की आज 140 वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं । एक संवेदनशील व्यक्ति और एक रचनाकार के रूप में पुष्पिता अवस्थी ने सूरीनाम के आर्थिक-सामाजिक-साँस्कृतिक परिवेश को तथा उस परिवेश में भारतीयों की सक्रिय भागीदारी, संलग्नता और योगदान को देखने/समझने का महती प्रयास किया है । अपने इस प्रयास को पुष्पिता ने अपनी विभिन्न रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त भी किया है । सूरीनाम से संबंधित उनकी रचनाओं के ढेर में से हम यहाँ उनकी एक कविता प्रस्तुत कर रहे हैं, जो उनके कविता संग्रह 'ईश्वराशीष' में प्रकाशित हुई है । ।। स्मृतियों का नरम सुख ।। सूरीनाम नदी-तट से गंगा-तट के लिए चिट्ठी लिखने से पहले सादे कागज को पारामारिबो की धूपीली-धूपीली धारदार आँच में सेंककर और अधिक उजला किया रात की स्याह हथेलियों के अंधे छापे से बचाकर कोरे कागज को चाँद की तरल चाँदनी से भिगोकर एकसार शब्द लिखे बिना अक्षरों के अनुभूत करने वाली अनुभूतियों की भाषा लिखी सादे कागज को मन की चंचल स्मृतियों का नरम सुख पिलाया सूरीनाम की वासंती रंग-गंध

दो कविताएँ

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।। राग में शब्द ।। प्रेम आँखों में खुलता और खिलता है आँख में दृष्टि बनकर रहता है । साँस की लय में रचे हुए शब्द घुल जाते हैं अपनी लय में जैसे राग में शब्द शब्द में राग । प्रेम ने रचा है प्रेम सारे विरोधों के बावजूद । सार्वभौम शब्द-गूँज प्यार अनुगूँज जिसमें भूल जाता है व्यक्ति-स्व और शेष रहता है सिर्फ प्रेम । जैसे समुद्र में समुद्र धरती में धरती सूरज में सूरज चाँद में चाँद और प्यास में पानी । ।। रेखाओं से परे ।। नयन रचते हैं प्रणय की रेखाएँ और ओंठ भरते हैं इन्द्रधनुषी गीले रंग । प्रेम उजला और कोरा कागज है शब्द और रेखाओं से परे जिस पर रचता है मन अनलिखी जिसे सृजनधर्मी ऊँगलियाँ पढ़ती हैं और सुनती हैं प्रेम का रूपवान चेहरा बनकर ।

।। नवजात अश्वेत शिशु के जन्म पर ।।

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(एक) बायीं बाँह की गोद में अपने नवजात शिशु को लेकर खुश है वह नवजात नीग्रो माँ । अपनी ही देह का जादू देख रही है - हथेलियों में अपनी ही देह के खिले फूल से खेल रही है वह । रह-रह कर सूँघती है अपना ही जाया नवजात शिशु जैसे वह हो कोई उसकी देह-धरती का कोई अनोखा पुष्प जीवित और जीवंत उसके मृत्यु पर्यन्त खिला रहेगा बढ़ता और महकता रहेगा अपनी माँ को खुश करने के लिए । (दो) वह चुप है और खुश है शिशु को वायलिन की तरह अपने वक्ष से लगाये नव-जीवन की धड़कनों के संगीत को सुनने में व्यस्त है उसकी साँसों की लय को गुन और बुन रही है अपने जीवन की लय में शिशु की मुँदी पलकों को अपनी प्रसव-पीड़ित थकी नयन-दृष्टि से खोलने में लीन अपनी कजरारी आँखों से नवजात शिशु के चेहरे पर बुरी नज़र से बचाने वाले काले टीके को लगाने में आत्मलीन है । वह सुनती है सिर्फ नवजात शिशु की धड़कनें जिसमें जान लेना चाहती है उसका सर्वस्व । वह अपने देहांश को निरख रही है और परख रही है उसका तीन घंटे पहले पैदा हुआ शिशु कितना है उसकी ही तरह और कितना है अपने गोरे पिता की तरह क्या आँखो