सजल उर मित्र
अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता के अपने लोकप्रिय स्तंभ
'कभी-कभार' में लिखा :
अपना यह रुझान किसी कदर छिपाया नहीं जाता कि इस समय हिंदी में जिस अखबारी और अंतर्ध्वनिहीन भाषा में ज्यादातर कविता लिखी जा रही है और कविता से जातीय स्मृति के गायब या कम से कम निष्क्रिय होने की स्थिति बनी हुई है, अगर कोई कुछ पुरानी उक्तियों - बिंबों या शब्दसंपदा को फिर से कविता की काया में लाने की कोशिश करता है तो उस पर ध्यान देने का मन होता है । बरसों पहले बनारस में पुष्पिता से भेंट हुई थी : जो कृष्णमूर्ति से प्रभावित और विद्यानिवास मिश्र के निकट थीं । फिर वे सूरीनाम चली गईं और इन दिनों हालैंड में हैं । वहां से वे पत्रिका निकालने और एक सांस्कृतिक केंद्र स्थापित करने का उद्यम कर रही हैं; इस सिलसिले में वे फ्रेंकफर्ट मिलने भी आईं थीं । इस बीच राधाकृष्ण प्रकाशन द्धारा प्रकाशित उनके प्रेम कविता संग्रह को देखने का अवसर मिला । लगा कि इन कविताओं को अलक्षित नहीं जाना चाहिए । एक अंश है :
मैं जानती हूँ तुम्हें
लोकगीतों की तरह
----------------------
मेरा अंचल दिन
(17 दिसंबर 2006)
वाह ... बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएं