।। अनंग पुष्प ।।
तुम
प्रेम का शब्द हो
विदेह प्रणय की
सुकोमल देह
अनंग पुष्प की
साकार सुगंध
मेरी अनुभूति का
आलिंगी अभिव्यक्त रूप
कि अधर
धरते ही तुम्हारे
ओंठ के भीतर
फूटता है
अजस्र अमृत कुंड
जिसमें रह रह कर
तपती हूँ
अपनी ही
ज्वालामुखी की आँच में
लावा के सुख को
जानने के लिए
अपनी सी साँसों की
हिमानी हवाओं में
बर्फ होती देह
तुम्हारी स्मृतियों के स्वप्न से
पिघलती है
अपनी ही प्यास को
बुझाने के लिए
पीती हूँ अपनी ही
देह का पिघलाव
नयन-कुंड में
जो सुरक्षित है
विरह-जल का पर्याय बनकर
आँसू होकर
तुम्हारे सामने न होने पर
दर्द से जनमे
आँसुओं को
दर्द से जिया है
प्रतीक्षा की आग के ताप को
आँसू चुप नदी की तरह
पीते हैं
अपने कोशिश भरे बहाव में
इंतजार की टूटी लकीरें
तोड़ती हैं संवेदनाओं की हिम्मत
प्रतीक्षा के
शाब्दिक पुल
समय के अंतराल पर
असमर्थ हैं
दर्द से जनमे आँसू
बनाते हैं आँसुओं के दर्द का पुल
समय को लाँघने के लिए
प्रतीक्षा से थके चेहरे की
उदास सिलवटों और
तनहाई की चिमड़ी झुर्रियों को
मिटाते हैं आँसू
तुम्हारे हाथ, ओंठ और वक्ष की याद में
शायद,
चेहरे के आँसू खींच लाए तुम्हें
जैसे समय
खींच लाता है सूर्य ।
('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)
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